Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 32
________________ भक्तामर स्तोत्र । कुन्दावदातचलचामरचार शोभः ।। विधाजते तव वपुः कलधौतकांतम् ।। उद्यच्छणांकशुचिनिभरवारिधार,:मुच्चैस्तटंसुरगिरेरिवशातकोभम्, ३०॥ . कुछकुन्दलफूल। अवदात सफेद । चल-चंचल । बामर पर चान्द -मनोहर । शोम-शोभा। विभाजते -शोनता है। तुम्हारा । पपु-शरीर कलधौत-सौना । कति सुन्दर । उद्यत् - जगा हुआ । शशांक-बांद. शुचि-शुद्ध निरभरणा । पारि-पानी। धार = धारा । ऊच्चे-ऊंचा। तट-किनारा। सुरगिर-सुमेक। इव-जैसे । शातकौम्म सोने का . ' : , मन्ववार्थ-हे भगवन् उदय हो रहे चांद के समान शुद्ध निर्धार (मरणों) की जळधारों वाला सोने के ऊंचे सुमेरु के तट (किनारे) की तरह कन्द के फूल के तुल्य बफैछ हिलते घरों से मनोहर शोमानाला सोने के समान सुन्दर मापका शरीर मत्यन्त शोमित हो रहा है। भावार्थ-हे भगवन जैसे सफेद जलके झरणों कर सहित स्वर्ण मय सुमेह पर्वत शोने है ऐसे ही कुन्द के पुष्पों के समान सुफ़ेद चंवरौ के दुलन सहित भाप का पीतवर्ण शरीर शोभे हैं । कुन्द पहुप सित चमर डुलत। कनक वरणं तुम तन शोभत॥ ज्यो सुमेरु तट निर्मलं कांति ॥ झरणा झरें नीर उमगांति ॥ ३०॥

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