Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 23
________________ भक्तामर स्तोत्र । मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुनि येन नान्यः, कश्चिन्मनोहरति नाथ भवांतरेपि ॥ २१ ॥ २३ E मन्ये मानता हूं | घरं - बहुत अच्छा | हरिहरादयः = हरिहरादिक । पत्र - ही । दृष्टा = देखे गए । दृष्टेषु = देखे हुए । येषु - जिनके । त्वयि = तेरे में। तोष' खुशी । एति = प्राप्त होती है। किं = क्या । वीक्षितेन देखे हुवे करके । भवता - आप करके । भुवि = पृथ्वी में । येन = जिस से । न नहीं । अन्यः = दूसरा | कश्चित् = कोई | मन = दिल | हरति = चुराता है । नाथ = स्वामिन् । भवान्तर दूसरा जन्म। अपि भी ॥ अन्वयार्थ - हे प्रभो ! बहुत अच्छा हुआ कि हरिहरादिक, मेरे कर देखे गये जिनके देखे जाने पर दिल आप विषे संतोष को प्राप्त हुआ भूमि पर आपके देखने से दूसरा कोई जन्मान्तर में भी मन को हरण नहीं कर सकता ॥ भाषार्थ - हे भगवन् ! मेरे वास्ते यह बड़ी खुशी की बात है कि मैंने हरिहरादिक दूसरे देव भी देख लिये क्योंकि उनके देखने से आपको वीतराग रूप पहिचान मेरा दिल आप विषे ही संतोष को प्राप्त हुआ अब किसी जन्मान्तर में भी मेरे मन को दूसरा कोई हरण नहीं कर सकता ॥ नाराच छन्द । • सरागदेव देख मैं भला विशेष मानिया । स्वरूप जाहि देख वीतराग त पंछानिया । कछू न तोहि देख के जहां तुही विशेषिया । मनोज्ञ चित्त चोर और भूल हू न पेखिया ॥ २१ ॥ २१- सराग राग सहित । विशेषिया जियादा । पेखिया देखा । 4 .

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