Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 16
________________ १६ भक्तामर स्तोत्र । संपूर्ण मंडलशशांककलाकलाप, शुभ्रागुणास्त्रिभुवनंतवलं घयन्ति । ये संश्रितास्त्रजगदीश्वर नाथमेकं, कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ||१४|| मण्डल प्रतिविस्य । शशांक =जांद | फ्ला = सोलदमा संपूर्ण = पूरा - हिस्सा कलाप समूह | शुभ्रा - सफेद । गुण गुण । त्रिभुवन = त्रिलोकी । तव - ...तुम्हारे ! संघयन्ति = उल्लंघ जाते है । ये = ले । संधिनाः = आश्रयसे हैं । त्रिजगदीश्वर: तीनटोकके नाथ । नाथ स्वामी । एक- एक को = कोन | तान = उनको । निवारयति = निवारता, है, (हटाता है) । संवरतः = विचार रहे। यथेष्टं अपनी इच्छा से | Ta 1 T-TO - अन्वयार्थ -हे भगवन् ! सम्पूर्ण मण्डल वाले यान्द की किरणों के समूह के समान सफेद आपके गुण त्रिलोकी को उल्लंध जाते हैं। जो गुण तीन जगत् के एक स्वामी को आश्रय करते हैं इच्छा से विवरते हुए उनको कौन निवारण कर सकता है ॥ भावार्थ हे तीन लोक के नाथ तोन लोक में जितने गुण हैं सर्व ने अपनी इच्छा से विचरते हुए आपका आश्रय लिया है अर्थात् यह सर्व आपमें भातिष्ठे हैं सो आप के गुण पूर्ण चन्द्रमा के मंडल की किरणों के समूह के समान उज्जल तीन लोक को भी उघ कर सर्व लोकाकाश में व्याप्त हो रहे हैं उनको कोई भी हटा नहीं सकता अर्थात् चन्द्रमा की उज्जलता और गुण तो लिरफ इस हो लोक में फैलते हूं और दिन मैं सूर्य की किरणों से प्रकाशमान नहीं रहते और आपके गुण तीन लोक को भी उल्लंघन कर सर्वत्र व्याप्त रहे हैं जिन को कोई भी हटा नहीं सका || पूर्ण चन्द्र ज्योति छविवन्त । तुम गुण तीन जगत् लंघंत ॥ एक नाथ त्रिभुवन आधार । तिन विचरत को सकै निवार ॥१४ १४ - छवि - शोभा । टयंत = पारजाना । नाथ स्वामी आधार = त्राश्रय, निवार हटाना ||

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