Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 18
________________ भक्तामर स्तोत्र | निर्धूमवर्तिर पर्जिततैलपूरः, अत्स्नं जगचयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोsपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः ॥ १६ { A निर्धूम - धूर्वे से रहित । वत्ति - (वची) अपवर्जित -रहित । तैलपूर तेल का प्रवाह । कृत्स्नं सकल (तमाम ) । जगत्रय - त्रिलोकी । इदं - यह । प्रकटीकरोषि प्रकाश करते हो । गम्यः = प्राप्त । न- नहीं। जातु कभी भी मरुतू हवा | चलताचलानां - हिलादिये हैं पहाड़ जिन्होंने, दीप- दीवा । अपर = दूसरा । त्वं तुम ! असि = हो । नाथ = स्वामिन् । जगत् प्रकाशः जगत् को प्रकाश ने वाला । 1 • अन्वयार्थ --हे भगवन् धूवां वत्ती तेल इनसे रहित सकल इस त्रिलोकी को प्रकाश (प्रकट करता हुवा पर्वतों के हिलाने वाली भी वायु से कभी न हिलने वाला: जगत् का प्रकाशक तू एक दूसरा दीवा है ॥ ' . भावार्थ- हे प्रभो ! दीपक अल्प देशका प्रकाशक और आप त्रिलोकी के प्रकाशक दीपक धूां तेल और वासी वाला अर्थात् तेलक्सी के आश्रय है और धूर्वा साहित है और हवादिक से हिलचल या आभाव को प्राप्त हो जाता है और भाप इन से रहित सदा वैदीप्यमान रहने वाले विलक्षण दीपक हैं | 3 धूम रहित बाती गति नह । परकाशक त्रिभुवन घर येह ॥ बात गम्य नाहीं परचण्ड । अपर दीप तुम बले अखण्ड ॥ १६ ॥ १६- घूम = धूर्वा । वाती बप्ती । गति - हिलना । नेह नहीं । वात हवा | गम पहुंचना । मपर दूसरा दीप दीवा ॥

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