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'भक्तामर स्तोत्र |
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोष, त्वत्संकथाsपि जगतांदरितानि हंति । दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांनि ॥ ८ ॥
मास्ता = (दूर) रहो। तब तुम्हारा । स्तवन स्तोत्र | अस्त = नाश (दूर) होना। समस्त = सकल | दोष -गुनाह । त्वत्-तुम्हारी । संकथा = अच्छी कथा | . अपि = भी। जगतां संसार के दुरित पाए। हन्ति नाश करती हैं। दूरे दूर में
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सरोवर
सहस्र किरण - सूरज । कुरुते - करता है। प्रभा तेज। एत्र ही । पद्माकर जलज कमल । विकाशमांजि - खिलने वाले ।
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..., भत्वयार्थ - दूर कर दिये हैं सकल पाप जिसने एसा आपका स्तोत्र तो दूर रहो आपकी तो कथा ही पापों को दूर करती है सूरज तो दूर रहो सूरज को कांति ही सरोवरों में कमलों को खिलाने वाले कर देती है ।
भावार्थ- हे भगवन जैसे सूर्य तो बहुत दूर है सिरफ उसके उगने के पूर्व कर किये हुवे उजाले से प्रातःकाल कमल खिल जाते हैं तैसे ही आप का स्तोत्र तो एक बहुत बड़ी बात है केवल तुम्हारे नाम मात्र के उच्चारण से ही जीवों के पाप दूर होजाते हैं ।
तुम गुण महिमा हत दुःख दोष 1 सो तो दूर रहो सुख पौष ॥
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पाप विनाशक है तुम नाम | 'कमल' विकासे ज्यंरविधाम ॥९॥
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7. महिमा माहातस्य. (बड़ाई) 1 हत - नाश करनेवाली विकाशे - जिलायें। रविधाम -सूरत का तेज !!