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भक्तामर स्तोत्र |
दृष्ट्वा भवंतमनिमेषविलोकनीयं, नाऽन्यच तोषमुपयाति जनस्यचक्षुः । पीत्वा पयः शशि करद्युतिदुग्धसिंधोः, चारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥ ११ ॥
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दृष्टवा देख करके । भवन्तं - आपको । अनिमेष - बिना आंख के प्रसक्ने 'से'।' बिलोकनीयं = देखने योग्य ! न नहीं । अन्यन्त्र = और जगह । तोष आनन्द ।
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उप-याति पाती है । जनस्य - मनुष्यकी । चक्षुः- आँख पीत्वा - पी करके । पूयुः -
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दूध । शशि कर बांद की किरण वृति कांति । दुग्धसिंघ क्षीरसमुद्र । -
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खारी | जल - पानी | जलनिधि समुद्र । असितुं पीने । को कौन ।
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इच्छेत् = चाहे ।
- अन्वयार्थ - हे प्रभो न झमकने से देखने योग्य आपको देख कर मनुष्य की
आंख दूसरी जगह आनन्द को नहीं पाती । चन्द्रमाकी किरणों की शोभा के समान
शोभावाले क्षीरसमुद्र के दूध को पीकर दूसरे समुद्र के खारे पानी पीने को कौन चाहता है।
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भावार्थ--हे भगवन काल के भेदों में भांख चमकने मात्र वक्त (एकपलक) थोड़ासा समय है सो भाप का यह देखने योग्य ( दिलकश ) स्वरूप नहीं सकती है आंख जिस की लगातार देखनेवाला) एक पलक तो क्या अगर जरा भो इन्सान की आंख देख लेवे तो फिर वह आपको देखतो हुई पलक्रमात्र भी दर्शनाभाव नहीं सहती हुई लगातार आप को ही देखने की इच्छक किसी दूसरे को भी देखना पसंद नहीं करती क्योंकि क्षीरसमुद्र के उज्जल दुग्ध को पीकर खारे समुद्र का जल कौन पीना चाहता है
नोट- भरतकी आंख कभी नहीं क्षमकतो ओर देखने वालों की भांख भी उनको देख कर यहो चाहती है कि मैं उन के स्वरूप को देखे जाऊं झमकुं नहीं || इकटक जन तुम को अविलय । और विषे रति बरे न सोय || को कर क्षौर जलधि जल पान । क्षार नीर पीवे मति मान