Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 8
________________ J भक्तामर स्तोत्र । अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम, ' त्वज्ञक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चारुचामुकलिकानिकरैकहेतुः ॥ ६ ॥ अल्प - थोड़ा । श्रुत शास्त्र । श्रुतवतां पण्डितों को परिहास -हांसी । धाम पात्र । स्वद्भक्ति तुम्हारी भक्ति । एव ही । मुखरीकुरुते = बाचाल करती है । चलातू - जोर से। मां मुझे । यत् - जैसे (जो ) कोकिल' - कोयल | किल' निश्चय से । मधी बसन्त में मधुर - मीठा वरौति शब्द करता है । तत् वह । चारु-मनोहर । आम्र आम । कलिका - कली (मजरी वा कोहर) निकर समूह । एकहेतु एक खास लवव । ८ LF - अन्वयार्थ - हे प्रभो थोड़ा पढे हुचे और विद्वानों की हांसी के स्थान मुझ को आप की भक्ति जोरावरी से बहुत बोलने वाला' करती है जो वसन्त ऋतु में ... कोयल मीठागाती है उसमें मनोहर आम की मञ्जरी का समूह ही सच है | 2 भावार्थ- हे भगवन् जैसे वलन्त ऋतु में आम के कोर के प्रभाव से तृप्त हुई हुई कोयल मीठे मीठे शब्द करती है उसी तरह से मुझ- फम इलम आलमों की हांसी के स्थान को आप की भक्ति जोर सोर से धारा प्रवाह अपकी स्तुति करने को मजबूर करती है | 4 नोट - इस श्रीमानतंगाचार्य, रचित काव्य में किसी ने आम्म्र शब्द दूर कर उसकी जगह एक ऐसा लज्जा उपजाने वाला शब्द गूंथ दिया था जो स्त्री के उस पोशोदा अंग का नाम है जिल से पुत्र पुत्रो जन्मते हैं देखो जैनस्तोत्र संग्रह पृष्ठ ४ A 'छापा चम्बई सं० १९४७ वि० सो इस समय तक किसीने भी उस दोष के दूर करने की कोशिश नहीं की जब हमने प्रथम यह संस्कृत पाठ छापा तब यह त्रुटी दूरकरी थी | मैं शठ बुद्धि हसन को धाम । तुम मुझ भक्ति बुलावे राम ॥ ज्यूंपिक, अम्न कली परभाव । मधऋतु मधुर करे आरात्रः ॥ ६ ॥

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