Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 7
________________ - भक्तामर स्तोत्र। सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश, कतुं स्तवं विगतशक्ति रपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्यमगी मृगेन्द्र, नाऽभ्येति किंनिजशिशोःपरिपालनार्थम् ॥५॥ सोहम् = लो में । तथापि तो भी । तव = तुम्हारी । भक्तिवशात् =भक्ति के पश से । मुनीश-मुनीश्वर । फतु = करणे को स्तव-स्तोत्र । विगत दूर होगई। शक्ति साम । अपि-प्रवृत्त - तत्पर (मशगूल) प्रीत्या - प्रेम से । आत्म बीर्य - अपनी ताकत । अविर्य विना यिचा । मगी-हिरनी। मृगेन्द्र' =शेर । नाभ्येतिसन्मुस नहीं भाती । कि क्या । निशिशोः अपने बच्चे के। परिपालनार्थमबचाने के लिये ॥ अन्वयार्थ-तो भी हे मुनीश शक्ति हीन भी मैं तुम्हारी भक्ति के वश से स्तोत्र यनाने के लिये प्रवृत्त हुआ हूं। हिरणी प्रेम से अपनी ताकत को न विचार कर अपने बच्चे के बचाने क लिये शेर के सन्मुख पधा नहीं जाती। भवार्थ-जैले हिरणी अपने में शेर के मुकाबले की ताकत न होते हुए भी अपने बच्चे की प्रीति के घश से शेर के सन्मुख जाती है वैसे ही मैं यह जानता भी हूं कि मेरे में भापके स्तोत्र बनाने को लियाकत नहीं है तो भी मैं हे अाहन्त भगवन् भाप के प्रेम के वशीभूत हुआ आप का स्तोत्र वानने में तत्पर (मशगूल) हुआ हूं । सो मैं शक्तिहीनस्तुतिकरू । भक्तिमाव वश कुछ नहीं डरूं । ज्यू मृगी निज सुत पालन हेत । मृगपति सन्मुखजाय अचेत ॥५ , ५-शक्ति हीन - सामर्थ्य से रहित (कमजोर)। भाव-भावना । मृगी'हिरणी । निज- अपना । सत=पुत्र । हेत=लिये । मृगपति शेर, अचेत-विना

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