Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 4
________________ ४ भक्तामर स्तोत्र | यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्वबोधा, दुद्भुतबुद्दिपटुभिः सुरलोकनाथेः । स्तोत्रेर्जंग प्रितयचित्त हरैरुदारेः, स्तोष्येकिलाहमपितं प्रथमं जिनेद्रम् ॥२॥ 1. शब्दार्थ - यः = जो । संस्तुतः = स्तुति किया गया। सकल = सभी 1 वाढाय (शास्त्र) तत्व = यथार्थसार । बोध- ज्ञान । उद्भूत - उत्पन्न हुई । बुद्धिमान | पटु = चतुर । सुरलोक = स्वर्ग | नाथ = स्वामी । स्तोत्र - स्तुतिः। जगत्संसार | त्रितय == तीन । अर्थात् स्वर्ग मायें (मनुष्यलोक) पाताल | विश्व (दिल) | हरे हर घाले । उदार=अच्छे । स्तोष्ये = स्तुति करता हूं । किल निश्वय से । अहं - मैं । अपि भी । तं = उसको । प्रथम पहिले । 'जिनेन्द्र आदि नाथ ॥ C 293 CL · अन्वयार्थ -- समस्त शास्त्र के तत्वज्ञान से उत्पन्न हुई जो बुद्धि उस करके बैं 1 चतुर जो इन्द्र उन करके तीन लोकों के वित्त को हरने वाले उज्वल ' स्तोत्रों से जो स्तुति किया गया है उस आदि जिनेन्द्र की मैं भी स्तुति करता हूं ॥. · भावार्थ - इस द्वितीय छन्द में कवि (आचार्य) ने स्तोत्र रचने की प्रतिज्ञा करी है और यहां आचार्य कहते हैं कि इन्द्र जैसे बुद्धिमान् स्तोत्र कर्ता जिस प्रभु की स्तुति करते हैं उस भगवान् की मैं भी स्तुति करने लगा हूं ।। श्रुतिपारगइंद्रादिकदेव । जाकी स्तुति कीनी कर सेव ॥ शब्द मनोहर अर्थ विशाल | तिसप्रभु की वरणुं गण मालं |२| · आदि पुरुष = प्रथम पुरुष | आदिश, जिन - प्रथम जिनदेव | आदि सुविध करतार = कर्मभूमिकै आदि में विधिके कर्त्ता । धर्मधुरंधर - धर्म की धुरा (भार) के धारणेवाला ॥ १- नतसुर = नत (नम्र) भक्त जो सुर देवता । छषि = शोभा । अन्तर = भीतर, का। पाप तिमिर = पाप रूपी अन्धेरा । वचक्रपाणी । काय = देह | भष= संसार । - (जलधि) समुद्र । पतित गिरे हुए | उद्धरण = निकाललेना । २-- श्रुतिपारग शास्त्र के पार जाने वाले । मनोहर सुन्दर विशाल बहुत विस्तार वाला | प्रभु स्वामी । गुणमाल गुणों की माला (जुन समूह ) ॥ 50 अल

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