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भगवती सूत्र-स. १: उ. ५ नयिकों में दृष्टि
णिरयावासमयसहस्सेसु मखेजवित्थडा गरगा किं मम्मदिट्ठीहिं गैरह. एहिं अविरहिया, मिच्छादिट्टीहिं परइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छदिट्ठीहिं णेरइएहिं अविरहिया ? ___ १७ उत्तर-गोयमा ! सम्मदिट्ठीहिं वि णेरइएहिं अविरहिया मिच्छादिट्टीहिं वि णेरइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छादिट्टीहिं गेरइ. एहिं अविरहिया विरहिया वा । एवं असंखेजवित्थडेसु वि तिण्णि गमगा भाणियव्वा । एवं सक्करप्पभाए वि, एवं जाव तमाए वि ।
१८ प्रश्न-अहेमत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखेजवित्थडे मु णरए किं सम्मदिट्टी गैरइया-पुच्छा।
१८ उत्तर-गोयमा ! सम्मदिट्ठी जेरइया ण उववज्जति. मिच्छादिट्ठी णेरड्या उववजंति, सम्मामिच्छदिट्टी णेरड्या ण उववजंति, एवं उब्वटृति वि, अविरहिए जहेव रयणप्पभाए । एवं असंखेजविस्थडेमु वि तिण्णि गमगा। · कठिन शब्दार्थ-अविरहिया-अविरहित (विरह रहित)।
भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावास, सम्यग्दृष्टि नरयिकों से अविरहित (सहित) हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिकों से अविरहित है और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नरयिकों से अविरहित हैं ?
१७ उत्तर-हे गौतम ! सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नैरयिकों से अविरहित हैं, सम्यग-मिथ्यादृष्टि नैरयिकों से कदाचित् अविरहित होते हैं और कदाचित् विरहित होते हैं। इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले
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