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शतक उद्देशक
ढाल वा० वार्तिका वृ०-५० वृत्ति-पत्र
सम्पादन और मुद्रण के मध्य का एक काम है 'प्रूफ-निरीक्षण'। सामान्यतः हर प्रेस में प्रूफ-निरीक्षकों की व्यवस्था होती है, पर भगवती-जोड़ के प्रूफ-निरीक्षण का काम हमने अपने हाथ में रखा; क्योंकि जोड़ की भाषा राजस्थानी है और उसके सामने मूल पाठ और वृत्ति पाठ आने से प्राकृत और संस्कृत भाषाएं भी इसमें आ गई। पाद-टिप्पण हिन्दी भाषा में लिखे गए हैं। इस दृष्टि से प्रूफ-निरीक्षक को राजस्थानी, हिन्दी, प्राकृत और संस्कृत--इन चार भाषाओं का जानकार होना आवश्यक था।
एक बार प्रफ देखने मात्र से पूरा संशोधन हो जाए, यह संभव नहीं था। समय कम था और काम जल्दी पूरा करना था। इस दृष्टि से साध्वी जिनप्रभाजी और साध्वी कल्पलताजी ने भी कठिन परिश्रम किया। साध्वी जिनप्रभाजी ने तो अपने अन्य काम गौण कर सारा समय इसी काम में लगा दिया। इनके अतिरिक्त साध्वी सूरजकुमारीजी (थैलासर), सोमलताजी, विमलप्रज्ञाजी, चित्रलेखाजी, शारदाश्रीजी आदि साध्वियों के श्रम-सीकरों का भी इसमें यथासंभव उपयोग हुआ है । इनके इस थम-दान को प्रज्ञापुरुष जयाचार्य के प्रति इनकी विनम्र श्रद्धाञ्जलि के रूप में स्वीकृत करना ही अधिक उपयुक्त रहेगा।
प्रज्ञापुरुष जयाचार्य ने अपनी साहित्यिक चेतना से तेरापंथ धर्मसंघ में साहित्य की नई विधाओं का प्रयोग कर अपनी भावी पीढ़ी का पथ प्रशस्त कर दिया। उनकी निर्वाण-शताब्दी के पुण्य अवसर पर उनको एक महान् साहित्यकार के रूप में उजागर करने वाले उनके साहित्य से संपृक्त होने में मुझे सात्विक गौरव का अनुभव हो रहा है। उनकी साहित्यिक चेतना को अन्तहीन नमन।
परम श्रद्धास्पद आचार्यवर के सान्निध्य में बैठकर उनके अमोघ मार्गदर्शन में मैं अपनी साहित्यिक यात्रा निर्बाध रूप से करती रहूं, यही मुझे अभीष्ट है।
साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा
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