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वृत्तिपाठ
अनुवाद कि वायुकायिकानामप्युछ्वासादिना वायुनैव वृत्तिकार कहै एम रे, पृथ्वी पृथ्वी रूप छै। भवितव्यमुतान्येन केनापि पृथिव्यादीना- उश्वासादिक तेम रे, वायु रूप छै तेहना ।। मिव तद्विलक्षणेन ।'
इम अप तेउ काय रे, पृथ्वी नी परै जाणवा।
पिण वायुकाय अधिकाय रे, तेहनी बात विचित्र छ।' फुल्लुप्पलकमलकोमुलुम्मिलियम्मि दल उत्पल पंकज तणां, कमल कहितां मगनेन
ए बिहुं मृदु मिलिया तिकै, थया विकसित रवि उदयेन।' अहपंडुरे पभाए, रत्तासोयप्पकासे रात्रि गयां प्रभात समय, रवि ऊगै आकाश । किसुय सुयमुहगंजद्ध रागसरिसे रक्त अशोक प्रकाश करिक, फूल केसू नों जास ।। कमलागरसंडबोहए।
शुक मुख अर्द्ध गुंजा जिसो, लाल सूर्य सुप्रमोद ।
कमलागर द्रहादिक नै विषै, करै नलिनिषंड नो बोध ।। उठ्ठियम्मिसूरे सहस्सरस्सिम्मि
सहस्र-किरण दिनकर इसो, तेज करी नै जान। दिणयरे तेयसा जलते।
जाज्वलमान सुदीपतो, उदय छतै असमान ।' जयाचार्य का आगमिक अध्ययन बहुत विस्तृत था। वे समीक्षणीय स्थलों में आगम को उद्धृत करते हैं वहां पाठक आश्चर्य चकित रह जाता है।
समीक्षात्मक दृष्टि जयाचार्य ने अपनी व्याख्या में मूल पाठ के असष्ट अर्थ को स्पष्ट किया है। अनेक स्थलों पर वृत्तिकार के मत को उद्धृत किया है। जहां वृत्तिकार का मत समीक्षणीय लगा वहां उसकी समीक्षा की है। प्रथम शतक के एक सूत्र में हिंसा और अहिंसा का विचार उपलब्ध है। असंयमी जीव अविरति की अपेक्षा आत्महिंसक और पर-हिंसक दोनों होते हैं अहिंसक नहीं होते। संयमी मुनि शत्रु योग की अपेक्षा न आत्म-हिंसक होते हैं और न पर-हिंसक, किन्तु अहिंसक होते हैं।
वृत्तिकार ने एक विशेष सूचना दी है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि जीव प्रत्यक्षतः आत्म-हिंसक और परहिंसक नहीं होते, फिर भी अविरति की दृष्टि से वे हिंसक हैं । अविरति से निवृत्त मुनि के द्वारा सावधानी बरतते हुए भी अनिवार्य हिंसा हो जाती है, फिर भी वे हिंसक नहीं होते। जयाचार्य ने वृत्तिकार के इस मत को अनूदित किया है। इसमें उन्हें कोई समीक्षणीय अंश नहीं लगा, इसलिए इसकी कोई समीक्षा नहीं की
वृत्तिकार इहां इम कह्यो, सूक्ष्म एकेंद्री ताय । त्याग नहीं हिंसा तणा आत्मारंभादि थाय । मुनि रै त्याग हिंसा तणा, यत्नवंत श्रुत बुद्ध ।
जीव तणी है विराधना, निर्जर फल चित सुद्ध ।' १. भगवती वत्ति-पत्र ११० २. भगवती-जोड़ शतक २ उ०१ ढाल० ३०१९, २० ३. भगवती-जोड़ श०२ उ०१ढा०३८।४५ ४. भगवती-जोड़ श० २ उ०१ढा० ३८।४६, ४७ ५. भगवती-जोड़ श०२०१ढा० ३८१४८ ६. भगवती १।३४ ७. भगवती-वृत्ति, पत्र ३२ ८. भगवती-जोड़ श०१उ०१ढा० ॥१२, १३
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