Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 16
________________ उतना ही विशद है। इसके साथ भगवती-जोड़ में प्राचीन रागिनियों का भी बहुत उपयोग हुआ। केवल चार शतकों में ७१ रागिनियां हैं। उनका बोध न हो तो भी काम में कठिनाई उपस्थित होती है। आचार्यवर का रागिनी-बोध भी अपने-आप में पूर्ण है। इसलिए आपके सान्निध्य में काम करने से यह बाधा भी निरस्त हो गई। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आचार्यश्री इस काम में इतनी रुचि नहीं लेते तो इस ग्रन्थ का सम्पादन मेरे वश की बात नहीं थी। इन सब कार्यों के साथ अन्तिम रूप से प्रूफ-निरीक्षण के कार्य में भी आचार्यवर ने अपना पूरा समय लगाया। ऐसा नहीं होता तो इस ग्रन्थ में कुछ ऐसी भूलें रह जाती, जिन्हें पकड़ना भी कठिन था और उसके अभाव में सम्बन्धित सन्दर्भ का सम्यक् अर्थ-बोध भी नहीं हो पाता। भगवती-जोड़ की पहली शृंखला में चार शतकों का सम्पादन हो पाया है। प्रथम शतक में उनतीस गीत हैं, दूसरे शतक में सतरह गीत हैं, तीसरे शतक में छब्बीस गीत हैं और चौथा शतक बहुत छोटा है-उसमें केवल एक गीत है। चारों शतकों की संयुक्त संख्या तिहत्तर है। जयाचार्य के पद्य-साहित्य को सम्पादित करने के सन्दर्भ में आचार्यवर द्वारा कुछ मानक निश्चित किए गए, वे इस प्रकार हैं १. ढाल, दोहों और सोरठों की संख्या एक। २. क्रमांक पद्यों की आदि में लगाए जाएं। ३. ढाल की लय नीचे पादटिप्पण में दी जाएं। ४. वातिका के बाद चालू ढाल की लय या दोहों, सोरठों को पुनरुक्त करने की अपेक्षा नहीं है। ५. ढाल का 'ध्रुवपद' पहले लिया जाए। जहां एक ढाल में कई ध्रुवपद आ गए, वहां उनको उस पद्य की आदि में ले लिया जाए अथवा उनको कोष्ठक में रखा जा सकता है। ६. रागिनी में आने वाले हो, जी, काई, रे, लाल, प्रभुजी आदि शब्दों को प्रायः ध्रुवपद और एक पद्य में प्रतीक रूप में रखकर शेष स्थानों से हटा दिया जाए। जहां कहीं सन्देह उत्पन्न होने की स्थिति है, वहां गोयम, प्रभुजी आदि शब्दों को पूर्ण या अपूर्ण रूप में रखा जा सकता है। उपर्युक्त मानकों के अतिरिक्त भगवती-जोड़ में जो विशेष क्रम रखा गया है, उसकी सूचना के बिना पाठक असमंजस में आ सकता है । इस दृष्टि से कुछ आवश्यक सूचनाएं संकलित कर दी गई हैं १. भगवती की जोड़ के समानान्तर अंगसुत्ताणि भाग २ का पाठ उद्धृत किया गया है। २. यत्र-तत्र जोड़ संक्षिप्त पाठ के आधार पर है और अंगसुत्ताणि में पाठ पूरा किया हुआ है, वहां पाद-टिप्पण में दिए गए संक्षिप्त पाठों का उपयोग किया गया है। ३. कहीं अंगसुत्ताणि के पाद-टिप्पण में विस्तृत वाचना का पाठ लिया गया है और मूल में संक्षिप्त पाठ रखा है। ऐसे प्रसंग में, जहाँ जोड़ विस्तृत वाचना के आधार पर है, पाद-टिप्पण का पाठ उद्धृत किया गया है। ४. पाद-टिप्पण के पाठों में प्रमाण उन्हीं सूत्रों का दिया गया है, जिनके वे पाद-टिप्पण हैं। ५. सूत्र-संख्या का प्रमाण प्रायः वहां दिया गया है, जहां सूत्र पूरे होते हैं। पर कहीं-कहीं सूत्र के बीच में टीका या बड़ी समीक्षा के कारण लम्बा अन्तराल प्रतीत हुआ, वहां सूत्र के खंडित पाठ पर भी प्रमाण दिया गया है। ६. जयाचार्य की स्वतन्त्र समीक्षाओं को उद्धरण-चिह्नों में बांधकर उसके नीचे कोष्ठक में (ज.स.) लिखा गया है, जिसका अर्थ है—जयाचार्य की समीक्षा। ७. जोड़ के पारिभाषिक शब्दों और विशेष संज्ञावाचक नामों को परिशिष्ट में दिया गया है। ८. इस ग्रन्थ में कुछ सांकेतिक शब्दों का प्रयोग किया गया है, जैसे Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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