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युवाचार्यश्री को बहुत अच्छा लगा। उसी समय उस दृष्टि से कार्य प्रारम्भ कर दिया।
इस कार्य में सबसे पहला काम था 'जैन विश्व भारती' द्वारा अधिगृहीत भगवती-जोड़ की शुद्धता को प्रमाणित करना। इसके लिए भी आचार्यवर का सान्निध्य अपेक्षित था। क्योंकि इस प्रकार की कृतियों का अध्ययन न होने के कारण स्वतन्त्र काम करने में पग-पग पर अवरोध संभावित था। आचार्यवर ने अनुग्रह किया और अधिगृहीत ग्रन्थ को मिलाने के लिए अपना पूरा समय दिया। उस समय मेरे सामने केवल एक फाइल थी और आचार्यश्री के आसपास अंगसुत्ताणि भाग २, भगवती की वृत्ति, केशर भगवती, पंचांगी भगवती आदि कई प्रतियां थीं। जहां कहीं तथ्य स्पष्ट नहीं होते, आचार्यश्री मूल आगम और वृत्ति को सामने रखकर उस स्थल में संशोधन कर देते। आचार्य की मर्यादा आचार्य के हाथ में, यह तेरापंथ धर्मसंघ के संविधान का निर्देशक तत्त्व है। इसी के आधार पर आचार्य की कृतियां भी भावी आचार्यों की अपनी कृतियां बन जाती हैं। इस बात को ध्यान में रखकर आचार्यश्री ने पचासों स्थलों पर शब्दों और मात्राओं की दृष्टि से पद्यों में परिवर्तन किया। परिवर्तन करते समय आचार्यवर के मुंह से सहज श्रद्धा और विनम्रता के साथ शब्द निकलते-जयाचार्य की हर रचना पूर्ण है, अपूर्व है और अनाग्रहबुद्धि से संदृब्ध है। फिर भी हम अपनी ओर से जयाचार्य की किचित् भी आशातना न करते हुए, उनकी दृष्टि का अतिक्रमण न करते हुए शुद्ध भाव से यत्र-तत्र अपेक्षित परिवर्तन करते हैं, इसके लिए संभवतः वे हमें अपनी अनुमति दे रहे हैं।" कितना उदार और ऋजु दृष्टिकोण है आचार्यप्रवर का।
आषाढ़ शुक्ला सप्तमी को प्रथम शतक का काम पूरा हुआ। तयांलीस दिन का समय काफी लम्बा समय होता है, पर आचार्यश्री दिन-भर कई कामों में संलग्न रहते थे। समय के अनुपात को देखते हए काम अच्छा हुआ। एक शतक का व्यवस्थित काम देखकर आचार्यवर ने दूसरे शतक को भी उसी रूप में सम्पादित करने का निर्णय ले लिया। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को दूसरे शतक का काम प्रारम्भ किया और भाद्र शुक्ला तृतीया को पूरा हो गया। इस बार बीच-बीच में कुछ अवरोध भी आ गए। काम की गति को देखते हुए काफी समय की अपेक्षा थी, पर आचार्यवर ने संकल्प कर लिया कि संवत्सरी से पहले-पहले काम पूरा करना है। अतिरिक्त परिश्रम कर आचार्यवर ने तृतीया तक काम पूरा कर दिया।
भगवती-जोड़ प्रकाशन की पहली शृखला में दो ही शतक के मुद्रण का चिन्तन था। इस दृष्टि से जोड़ का काम पूरा हो गया। 'जैन विश्व भारती' की ओर से उसके अधिग्रहण का काम भी चातुर्मास की सम्पन्नता तक पूरा हो गया। अधिगृहीत प्रति को मिलाने का काम साध्वियों से करवा लिया।
___आचार्यवर के जयपुर प्रवास काल में जयाचार्य निर्वाण समिति की एक गोष्ठी हुई। साहित्य विभाग की मांग थी कि मुद्रण की पहली शृंखला में आने वाले ग्रन्थों की पांडुलिपियां अविलम्ब मिल जानी चाहिए। भगवती-जोड़ की पांडुलिपि अन्तिम रूप से देखकर देने का प्रसंग आया तो ज्ञात हुआ कि उसमें कई स्थलों पर जोड़ का संवादी पाठ पूरा व्यवस्थित नहीं है। एक बार फिर आचार्यवर के सान्निध्य में उसका पूरा पारायण किया और मूल तथा वृत्ति का पाठ विभक्त कर उसे जोड़ का संवादी बनाया। यत्र-तत्र पाद-टिप्पण लिखने की अपेक्षा अनुभव हुई, वे आचार्यश्री और युवाचार्यश्री लिखाते रहे।
प्रथम दो शतक के फर्म मुद्रित होकर आने लगे। तीन सौ सवा तीन सौ पृष्ठ की सामग्री का अनुमान लगाया गया। पुस्तक के आकार को देखते हुए पृष्ठ कुछ कम लगे। अगले दो शतकों को इसी प्रकार सम्पादित करने का चिन्तन आया और आचार्यवर ने अपनी स्वीकृति दे दी। ये शतक कुछ छोटे भी थे, और प्रेस वालों की ओर से शीघ्रता की मांग भी थी। दिन-रात में सात-सात घंटा इस काम में लगाया और ग्यारह दिनों में काम पूरा हो गया।
भगवती-जोड़ के प्रथम चार शतकों के सम्पादन में आचार्यवर का पूरा समय और श्रम लगा। यदि आचार्यश्री इतना अनुग्रह नहीं करते तो भगवती-जोड़ को इस रूप में मुद्रण के योग्य बनाना संभव नहीं था। आचार्यश्री की निर्मल प्रज्ञा में सैद्धान्तिक ज्ञान की जितनी गहराई है, व्यावहारिक ज्ञान और भाषा-जान भी
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