Book Title: Apbhramsa Abhyasa Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 248
________________ । ।। । । । । ।। ।। ।। 55 मो भुवणेक्कसीह वीसद्ध जीह तउ थाउ एह बुद्धी । ।। ।।। । ।।। ।। ।।। । ss अज्जु वि-विगय णामे रणं समउ रामे रणं कुणहि गम्पि संधी। -पउमचरिउ 53.1.1 अर्थ-हे भुवनकसिंह, विश्रब्धजीव ! तुम्हारी यह क्या मति हो गई है ? आज भी प्रसिद्धनाम राम के पास जाकर संधि कर लो । 22. लताकुसुम (मदिरा) छन्द लक्षण- इसमें दो पद होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में 30 मात्राएं होती हैं __ और चरण के अन्त में सगण (IIs) होता है ।। सगण 5 ।।5।। । । । । । । ।। ।। जत्थ सिरी अणुहुत्त तहिं पि कयं पुण भिक्खपवित्थरणं । सगण । । । । । । ।। ।। ।।।।। लोहु ण लज्जं भयं ण वि गारउ पेम्मसमं पि तवचरणं । -सुदंसणचरिउ 11.2.3-4 अर्थ-जहां पर उन्होंने राज्यश्री का उपभोग किया था, वहीं पर अब भिक्षा चरण किया। उनके न लोम था, न लज्जा, न भय और न अभिमान । उनको यदि प्रेम था तो तपश्चर्या से । 23. तोमर छंद लक्षण- इसमें दो पद होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में चार बार गुरु (s) व चार बार लघु (1) प्राता है । अपभ्रंश अभ्यास सौरभ ] [ 235 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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