Book Title: Apbhramsa Abhyasa Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 262
________________ 5. सुमरमि सुरहियकेसरणियरे पिंजरिय । सुपूरण किय समसलसुरतरुमंजरिय || 6. 7. 8. 9. - सुदंसणचरिउ 8.41.15-16 अर्थ- स्मरण करता हूँ सुगंधि केसर - पिंड से अपना पिमलवर्ण किया जाना तथा भौंरों से युक्त कल्पवृक्ष की मंजरी के कर्णपूर बनाकर पहनाये जाना । हवइकाई एण वहु जम्पिएण राया । पर-वले पेक्खु पेक्खु उट्ठन्ति धूलि छाया ॥ अर्थ — अथवा अधिक कहने से हे धूल की छाया उठ रही है । रावण रामकिङ्करा रणे भयङ्करा भिड़िय विष्फुरन्ता | विडसुग्गीव- राहवा विजयलाहवा णाइँ हणु भणन्ता ॥ - पउमचरिउ 25.4.1 राजन्, क्या ? देखो, देखो शत्रु - सेना से अर्थ - तब युद्ध में भीषण, तमतमाते हुए, राम और रावण के वे दोनों अनुचर भिड़ गये । मानो विजय के लिए शीघ्रता करनेवाले मायासुग्रीव और राम ही मारो मारो कह रहे हो । खुर-खर-छज्जमाणु णं णासइ भइयऍ हयवराहुं । णं आइउणिवारम्रो णं हक्कारउ सुरवराहूं || समोयणली, करेइ गिहीणु । सुपोसहु एम, फलेइ सु तेम ॥ पउमचरिउ 66.2.1 अर्थ - खुरों से खोदी हुई धूल मानो महाअश्वों के डर से नष्ट हो रही थी । वहाँ से हटाई जानेपर मानो वह देवताओं से पुकार करने जा रही हो । अपभ्रंश अभ्यास सौरभ ] Jain Education International - पउमचरिउ 53.8.1 For Private & Personal Use Only - - णायकुमारचरिउ 9.21.15-16 [ 249 www.jainelibrary.org

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