Book Title: Apbhramsa Abhyasa Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 256
________________ 10. सेसिउ हासु सुखेडपलोयणु संगु सपुव्वरईमरणं । होरु सुडोरु सुककणु कुंडलु सेहरु लेइ ण ग्राहरणं ।। (ख) निम्नलिखित पद्यांशों के मात्राएं लगाकर इनमें प्रयुक्त छंदों के लक्षण एवं नाम बताइए - - सुदंसणचरिउ 11.2.19-20 अर्थ-उन्होंने हास्य- रतिपूर्वक अवलोकन, परिग्रह, अपनी पूर्व रति के स्मरण का परित्याग कर दिया है। वे अब सुन्दर लड़ियोंयुक्त हार, सुन्दर कंकण, कुण्डल व शेखर आदि आभरण धारण नहीं करते । 1. हुणउ तिलजवघयं णवउ दियवरसयं । जणिय अरिविग्गहे मरउ तहिं गोग्गहे || 2. 3. - सुदंसणचरिउ 6.10.7-8 अर्थ - तिल, जो व घृत का होम दो तथा सैंकड़ों द्विजवरों को प्रणाम करो | चाहे शत्रुनों से कलह करके गोग्रहण में मरो । को वि भणइ उ णयणइँ प्रञ्जमि । जाम्व व सुरवहु जण मणु रञ्जमि || - पउमचरिउ 59.4.6 अर्थ - किसी एक ने कहा मैं तब तक अपनी प्रांखों में अञ्जन नहीं लगाऊँगा जब तक कि सुरवधुनों के नेत्रों का रंजन नहीं करता । फुरियाणणउ विहुणिय - वाहुदण्डो । णं गयवरउ ब्भिर - गिल्ल - गण्डग्रो ॥ तं दहवयणु जयकारेवि अक्खनो । णं णीसरिउ गरुडों समुहु तक्खो || - पउमचरिउ 52 1.1 अर्थ - - उसका चेहरा तमतमा रहा था, अपने दोनों हाथ मलते हुए वह ऐसा लगता था मानो मद करता हुआ महागज हो । रावण की अपभ्रंश अभ्यास सौरभ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only L 243 www.jainelibrary.org

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