Book Title: Apbhramsa Abhyasa Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 258
________________ अर्थ-वह वृक्षों को चिकनी पुष्परेणु से लाल हो रहा था, बुक्क ध्वनि करते हुए वानर फलों के ऊपर झपट रहे थे। वहां दिशाओं में विचरण करती हुई यक्षिणियों की किंकिरिणयों का स्वर सुनाई पड़ता था। पच्छऍ मेहवाहणो गहिय-पहरणो रिणग्गयो तुरन्तो । णं जुअ-खएँ सरिणच्छरो भरियमच्छरो अहर-विप्फुरन्तो। -पउमचरिउ 53.4.1 अर्थ--उसके पीछे अस्त्र लेकर मेघवाहन भी तुरन्त निकल पड़ा मानो युग का क्षय होने पर मत्सर से भरा कम्पिताधर शनैश्चर ही हो । 9. सुमरमि णवकोमलदलकुवलयताडणउ । मुत्ताहलहारावलिबधणछोडणउ ॥ -सुदंसणचरिउ 8.41.9-10 अर्थ-स्मरण आता है वह नये कोमल पत्रों से युक्त नीलकमल द्वारा ताड़न तथा मुक्ताफलों की छटावली का बांधना और तोड़ना। 10. लच्छिभुत्ति तं लच्छीण यरु पईसई । ववहरन्तु जं सुन्दरु तं तं दीसई ।। -पउमचरिउ 45.4.1 अर्थ-लक्ष्मीभुक्ति उस नगर में प्रवेश करता है और घूमते हुए जो-जो सुन्दर है उसे देखता है। (ग) निम्नलिखित पद्यांशों के मात्राएं लगाकर इनमें प्रयुक्त छन्दों के लक्षण व नाम बताइए1. दलइ फरिणउलं चलइ पाउलं । मुयइ विस सिहिं हरइ जणदिहिं ।। -~सुदंसणचरिउ 9.3 1-2 अर्थ-वह नागों के समूह का दलन करता, भीड़-भाड़ के साथ चलता, विष के बाण छोड़ता और लोगों के धैर्य का अपहरण करता । अपभ्रंश अभ्यास सौरभ ] | 245 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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