Book Title: Apbhramsa Abhyasa Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 252
________________ जगण जगण जगण जगण । ।।।। ।। । मणम्मि भरतह देउ जिणिदु । - सुदंसणचरिउ 8.44.1 अर्थ-अति दुर्द्धर, अंजनपर्वत के समान कृष्णकाय, दिग्गजों को भी त्रासदायी, मेघों के समान गर्जना करनेवाला उन्मत्त हाथी, उस पर कोई प्राघात नहीं कर सकता जो अपने मन में जिनेन्द्र का स्मरण कर रहा हो । 28. वसन्तचत्वर छन्द लक्षण- इसमें दो पद होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण मे जगण (151), रगण (sis), जगण (151), रगण (sis) व बारह वर्ण होते हैं । जगण रगण जगण रगण ISIS IS ISI SIS झरंतसच्छविच्छुलं भणिज्झरं जगण रगण जगण रगण ISI SISISI SIS भरतरुंदकुंडकूव कंदरं । जगण रगण जगण रगरण ISISISI SI JIS ललंतवेल्लिपल्ल वोह कोमलं जगण रगण जगण रगण 1515 15 151 SIS मिलतपक्खिपक्ख लक्ख चित्तलं । -जसहर चरिउ 3.16.3-4 अर्थ-हमने देखा कि उस वन में स्वच्छ बिखरे हुए पानी के झरने भर रहे हैं जिनके द्वारा विस्तीर्ण कुण्ड, कूप और कन्दर भर रहे हैं । वह वन लहलहाती हुई वल्लियों के पल्लव-समूहों से कोमल तथा एकत्र हुए पक्षियों के लाखों पंखों से चित्रित दिखाई दे रहा था। अपभ्रंश अभ्यास सौरभ ] 239 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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