Book Title: Anusandhan 2003 12 SrNo 26
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 52
________________ December - 2003 यदैहिकफलप्राप्तिहेतवे कृतनिश्चया । लोकरञ्जनवृत्त्यर्थं राजसी भक्तिरुच्यते ॥५॥ द्विषतां तत्प्रतीकारभिदे या कृतमत्सरम् । दृढाशयं विधीयेत सा भक्तिस्तामसी भवेत् ॥६॥ रजस्तमोमयी भक्तिः सुप्रापा सर्वदेहिनाम् । दुर्लभा सात्त्विकी भक्तिः शिवावधि फलावहा ॥७॥ उत्तमा सात्त्विकी भक्तिर्मध्यमा राजसी पुनः । जघन्या तामसी ज्ञेया नाऽऽदृता तत्त्ववेदिभिः ॥८॥ (इति विचारामृतसङ्ग्रहे) अर्हद्भक्तिफलमेवम् भत्तीए जिणवराणं खिज्जति पुव्वसंचिता कम्मा । आयरियनमुक्कारेण विज्जामंताइ सज्झंति ॥१॥ इति साध्वी अर्हद्भक्तिः । वस्तुतोऽभिलषितार्थसाधकत्वात्, आरोग्यबोधिलाभादेरपि तन्निवर्त्यत्वात् । तथा चाऽऽह भत्तीइ जिणवराणं परमाइ खीणपिज्जदोसाणं । आरुग्गबोहिलाभं समाहिमरणं च पावंति ॥१॥ (इत्यावश्यकचतुर्विंशतिस्तवाध्ययननिर्युक्तौ) अत्र तामस्या एव भक्तेरनादरणीयत्वोक्त्या तथाविधावस्थाकाले परम्परया सात्त्विकीहेतुतया मोक्षप्रयोजकत्वेन जिनोक्तमिति सद्बुद्ध्या क्रियमाणा किञ्चित्फलोदेशवत्यपि राजसी भक्तिः । श्रीपालादीनामिव विधेयत्वेनैव ध्वनिता उत्तमाऽनुसात्विक्येव सैव मोक्षप्रापिका। भक्तिः सेवायाम् ।, 'भक्तिः विनय: सेवे'ति नवमषोडशकविवरणे। 'भक्तिरभिमुखगमनासनप्रदानपर्युपास्त्यञ्जलिबन्धानुव्रजानादिलक्षणे'ति प्रवचनसारोद्धारैकशताष्टचत्वारिंशद्वारवृत्तौ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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