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December - 2003
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श्रीवल्लभोपाध्याय प्रणीता मातृका-श्लोकमाला
-सं. म. विनयसागर
स्वर एवं व्यंजनों पर आधारित अक्षर ही अक्षरमय जगत है । सारी सृष्टि ही अक्षरमय है । यही अक्षर मातृका, अक्षरमाला, वर्णमाला और भाषा में बारहखड़ी इत्यादि शब्दों से अभिहित है । स्वर १६ माने गये है - अ,
आ, इ, ई, उ, ऋ, ऋ, लु, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: और व्यंजन ३३ माने गये है :- क्, ख्, ग, घ, ङ्, च्, छ्, ज, झ, ञ्, ट, ठ, ड्, ढ्, ण, त्, थ्, द, ध्, न्, प, फ, ब्, भ, म्, य, र, ल, व्, श्, ष्, स्, ह् । तथा संयुक्ताक्षर अनेक होते हुए भी तीन ही ग्रहण किये जाते है:-स्, ज्, ज् । ये ही अक्षर संयुक्त होकर बीजाक्षर मन्त्र भी कहलाते है। वर्तमान समय में हिन्दी भाषा लिपि में टंकण एवं मुद्रण आदि की सुविधा की दृष्टि से ऋ, लु, ल, इन तीनों वर्गों का प्रयोग दृष्टिगोचर नहीं होता है ।।
मातृका से सम्बन्धित संस्कृत भाषा में रचित जैन लेखकों की कुछ ही कृतिया प्राप्त होती हैं, जिनमें आचार्य सिद्धसेनरचित सिद्धमातृका सर्वोत्तम कृति है। श्री श्रीवल्लभोपाध्याय प्रणीत मातृका-श्लोक-माला भी इसी परम्परा की रचना है।
कवि परिचय - खरतरगच्छीय प्रथम श्री जिनराजसूरि के शिष्य प्रसिद्ध विद्वान् जयसागरोपाध्याय की परम्परा में श्रीवल्लभोपाध्याय हुए हैं ।
जयसागरोपाध्याय की शिष्यसन्तति में उपाध्याय रत्नचन्द्र > उपाध्याय भक्तिलाभ > उपाध्याय चारित्रसार > उपाध्याय भानुमेरु > उपाध्याय ज्ञानविमल के शिष्य श्रीवल्लभ थे । श्रीवल्लभ के टीका-ग्रन्थों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है ये राजस्थान प्रदेश के निवासी थे । श्रीवल्लभ की 'वल्लभनन्दी' को देखते हुए १६३० एवं १६४० के मध्य में श्री जिनचन्द्रसूरि ने इनको दीक्षित किया होगा । इनकी प्रथम कृति शिलोञ्छनाममाला टीका सम्वत् १६५४ की है । वि.सं. १६५५ में रचित ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी
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