Book Title: Anusandhan 2003 12 SrNo 26
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 110
________________ December - 2003 १०३ ४. निघण्टुशेषनाममाला टीका', र० सं० १६६७ के पूर्व ५. सिद्धहेमशब्दानुशासन टीका ६. हैमलिङ्गानुशासन-दुर्गपदप्रबोधवृत्ति", र०सं० १६६१, जोधपुर सारस्वतप्रयोगनिर्णय (१६७४ से १६९०) ८. 'केशाः' पदव्याख्या ९. विदग्धमुखमण्डन टीका १०. अजितनाथ स्तुति टीका २, र० सं० १६६९, जोधपुर ११. शान्तिनाथविषमार्थस्तुति टीका(३ १२. 'खचरानन पश्य सखे खचर' पद्यस्य अर्थत्रिकम्१४ १३. 'यामाता' पद्यस्य अर्थपञ्चकम्१५ भाषा की लघु कृति : १. चतुर्दशगुणस्थान-स्वाध्याय २. स्थूलभद्र इकत्रीसा गच्छ-संघर्ष-युग में भी स्वयं खरतरगच्छ के होते हुए तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य विजयदेवसूरि के गुण-गौरव को सम्मान के साथ अंकित करते हुए विजयदेवमाहात्म्य की रचना करना कवि की उदार दृष्टि का परिचायक है। अरजिनस्तव को देखने से स्पष्ट है कि कवि चित्रकाव्यों के अद्भुत मर्मज्ञ थे । इस कृति में कवि ने कमल के मध्य में १००० रकार का प्रयोग करते हुए अपना विशिष्ट चित्रकाव्यकौशल दिखाया है । प्रस्तुत कृति का सारांश : यह कृति दो परिच्छेदों में विभक्त है । प्रथम परिच्छेद में २४ तीर्थंकरो का वर्णन किया गया है और द्वितीय परिच्छेद में त्रिदेव आदि देवताओं तथा पदार्थों का वर्णन किया गया है । अंत में छः पद्यों में रचनाप्रशस्ति देते हुए इसकी रचना का समय दिया है। प्रथम परिच्छेद के प्रथम श्लोक में भगवान शान्तिनाथ को प्रणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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