Book Title: Anjana Pavananjaynatakam
Author(s): Hastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 35
________________ पवनंजय - पवनंजय - विदूषक - पवनंजय - विदूषक - . 19 जैसा आपने कहा । (दोनों वैसा हो करते हैं। और इधर शीघ्र ही पश्चिम समुद्र से चन्द्रमा की चंचल तरंग रूप हाथों से प्रचुर रूप से गिरते हुए यहाँ पर बिखरे हुए तारागण आकाश में लाए गए अर्घ्य रूप मोतियों की लक्ष्मी को धारण कर रहे हैं । ॥4॥ (सामने की ओर निर्देश कर) मित्र यहाँ सहचर को खोजती हुई अकेलो चकवी को देखिए । (देखकर) अरे बड़े कष्ट की बात है । सहचर को खोजती हुई बेचारी शोचनीय दशा का अनुभव कर रही है । देखिए - विरह से दु:खी यह चकी बार-बार चन्द्रमा से द्वेष करती है, लार-बार कुमुदवन में प्रवेश करती है, बार-बार चुप रहती है, बार-बार अत्यधिक करुण क्रन्दन करती है, बार-बार दिशाओं की ओर देखती है, बार-बार रेत पर गिरती है, बार-बार मोहित होती है | ||5|| (मन ही मन) अतः कष्ट है । मेरे प्रवास से अंजना भो प्रायः इस प्रकार की दशा पर पहुंचती होगी । (निश्चल खड़ा रहता है) क्या बात है, मित्र कैसे घिरे हुए से बैठे हैं । मिंत्र चुप क्यों बैटे हो (हाथ खोंचकर) हे मित्र ! चुप क्यों बैठे हो । (गला भरे हुए स्वर में) काम के एक मात्र सारथो चन्द्रमा के 'चाँदनी बिखेर कर उदित होने पर कामिनी कौन अत्यधिक दु:सह विरह को सहती होगी । । || विदूषक (मन ही मन) • प्रिय मित्र उत्कष्ठित मे कैसे हैं ? संग्रामों में प्रतिदिन दुगने उत्साह से मेरे द्वारा बिताया गया यह दीर्घकाल भो चला गया, इसकी मैं पराधीनता के कारण परवाह नहीं की । कष्ट की बात है, इस समय स्वप्न में भी असंभव उस असहाय विरह व्यथा को सहन करने में महेन्द्र राजा की पुत्री कैसे समर्थ होगी । हे मित्र ! तुम इस समय अत्यन्त रूप से दुःखी क्यों दिखाई दे रहे हो ? (कामावस्था का अभिनय करता हुआ) इधर से इलायची की लता को कैपाता हुआ मलयपवन धीरे-धीरे चल रहा है। इधर चन्द्रमा कुमुद के समान स्वच्छ चाँदनी के समूह को वर्षा रहा है । इधर कामदेव अत्यधिक रूप से छोड़े हुए बाणों से बींध रहा है । हे मित्र ! तुम नि: शंक होकर कहो, मुझे किस प्रकार सास्त्रना दे रहे हो । ॥8॥ क्या बात है ? इस समय इसका कामोन्माद प्रवृत्त हो रहा है । ओह, महान् आश्चर्य है । इसके बाण पुष्पों के हैं और अत्यधिक निर्बल वे पाँच की संख्या को प्राप्त है, स्त्रयं यह अनङ्ग होकर कैसे जग्गत् को जीत रहा है । पवनंजय - पवनंजय - विदूषक - पवनंजय - विदूषक - पवनंजय -

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