Book Title: Anjana Pavananjaynatakam
Author(s): Hastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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92 सूत -
आयुष्मान् की जो आज्ञा (यथोक्त करता है।) पवनंजय - मित्र, आओ । आरोहण करें 1 विदूषक - जो आप आज्ञा दें।
(दोनों आरोहण करते हैं। पवनंजय - सारथी, घोड़ों को आकाश मार्ग से हाँको । सूत - जैसी आयुष्मान् आज्ञा दें। (वैसा करके) आयुष्मन, रथ मेघ के मार्ग पर
आड़ है । गहों ण निश्चित रूप से - आकाश रूपी आँगन के मध्य में विद्यमान आपसे अधिष्ठित यह रथ इस
समय साक्षात् सूर्य के मार्ग पर आरुढ़ है 19॥ पवनंजय - सारथी, शीघ्र ही घोड़ों को हॉको ।
जैसा आयुष्मान ने कहा (वैसा करके, रथ के वेग का अभिनय कर) आयुष्मान, देखिए। इस समय स्वयं वेगवती वायु भी इस रथ को मदमस बना रही है । रथ के अनुसरण के क्लेश रूप आघात से ही मानों (वह) हुंकार करता है। स्तब्धा यह मणिकिङ्किणी की रचना कुछ भी शब्द नहीं कर रही है । निष्यन्द तथा फैलाया हुआ यह ध्वज वस्त्र भी चंदो की शोभा को धारण कर रहा है। 100 समीपवर्ती लोगों के द्वारा अविच्छिन्न रूप से देखा गया यह वेगपुर्ण रथ आकाश रूप समुद्र के सेतुबन्ध के समान विस्तीर्ण दिखाई दे रहा है । ॥11॥ पधनंजय (देखकर) रथ से पूर्व मनोरथ और मनोरथ से पूर्व यह रथ, इस प्रकार निश्चित रूप से ये दोनों पारस्परिक संघर्ष से मानों जिनका वेग बढ़ गया है, इस प्रकार
दौड़ रहे हैं | ||12|| सूत - आयुष्मन् , विद्याधर लोक निकट ही दिखाई दे रहा है । पवजय - (देखकर)
क्या यह रथ दौड़ रहा है, अथवा क्या वह विजयाई स्वयं दौड़ रहा है इस • बात का निर्णय करने के लिए दोनों नेत्र से भी नहीं जान पा रहे हैं ओह
विजयाड़ आ ही गया । ||13|| विदूषक - नहीं ऐसा मत कहो । तुम्हें आधी विजय प्राप्त नहीं हुई। पवनंजय - (मन ही मन) खेद की बात है, इसके वचन से विजयाई प्राप्ति में विघ्न
सा पड़ गया है। विदूषक - तुम्हें निश्चित रूप से सम्पूर्ण विजय प्राप्त हो गई है। सूत - (सामने की ओर निर्देश कर) आयुष्मन् ! यह विजयाद्ध को दक्षिण श्रेणी
की वनपंक्ति है और यह धनी छाया वाले सन्तान वृक्ष से युक्त रजतमयी शिखर
है।
पषनंजय -
सारथी, यही रथ रोको, अब तक विलम्ब कर रही सेना की प्रतीक्षा करें। जैसा आयुष्मान् ने कहा (जैसा कहा था, वैस ही करता है)