Book Title: Anjana Pavananjaynatakam
Author(s): Hastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 54
________________ चमूरक - विदूषक - पवनंजय - विदूषक - आर्य यहाँ पर कौन सा उपाय है ? इन्हें कैसे आश्वस्त करें ? बलात् जिसका पूर्णपात्र हरणकर लिया गया है, ऐसा मैं विद्याधर नारी से उत्पन्न न होता । हे दुर्बल शरीर वाली ! वन में आँसू भरी हुई मृगियों के द्वारा देखी जाती हुई लुमने प्रसव कैसे किया होगा ? ||26।। (विशेष करुणा के साथ) हे महेन्द्रराज पुत्री, मेरे प्रति आसक्त (तुम्हारा) अपना मन कहाँ ? और स्वभाव से उत्पन्न उदारता कहाँ ? तुमने एक बार में ही हम लोगों को शिथिलमनोरथ कैसे कर दिया ? ||2711 यहाँ पर ठहरने से क्या लाभ है ? मैं भी अंजना का अनुसरण करता हूँ । (उठता है) (घबड़ाहट पूर्वक उठकर) बचाओ । कैसे साहस करने का निश्चय कर रहे हो ? अवश्य ही उनकी वनवासिनी देवियाँ रक्षा कर रही हैं । इस पन में तुम अंकले खोज नहीं कर सकत । अत: विजयाई जाकर सपस्त विद्याधरों के साथ आकर खोजना चाहिए । यह ठीक नहीं है । इस वन में कोई शरण नहीं हैं, मेरी प्राणप्रिया चली गई । चिन को सम्मोहित करने वाले विष के समान नगर का कैसे सेवन करें । 128!| तथापि यदि कदाचित् अंजना, अपनी वजह से आप जैमे सहायक का, जिमे जीवन की अपेक्षा नहीं हैं, वन प्रवेश सुनती है तो अपने प्राण त्याग देगी। अतः तुम्हारा यहाँ मातङ्गमालिनी नामक वन में प्रवेश ठीक नहीं है । प्रियमित्र, प्रिया का जीवन भी सन्दिग्ध है । मुझे वृत्तान्त प्राप्त करने का समय कहाँ है ? भाग्य से जीवन के प्रति रुचि वाली यदि वह जीवित हो तो मैं यह मानता हूँ कि उसका मुझे देखने का अनुराग नियन्त्रित कर रहा है । 1129| इस समय तुमने महेन्द्रपुर जाऊंगा, ऐसा कहकर प्रस्थान किया था । पवनंजय - विदूषक - पवनंजय - विदूषक - पावनंजय - विदूषक - पवनंजय - विदूषक - पवनंजय - इस प्रकार महाराज, वत्स देर क्यों कर रहे हैं, अत: महेन्द्रपुर में सन्देशवाहक व्यक्ति को भेजेंगे । वहाँ पर मी तुम्हारे दिखलाई न देने पर महाराज क्या सोचेंगे । महेन्द्रराज, माता केतुमती, मनोधेगा सभी अन्यथा शङ्का करेंगे । (विदूषक को हाथ में पकड़कर) मित्र, आपने मेरे बचनों का कभी उल्लंघन नहीं किया है, अतः मैं कुछ कहना चाहता हूँ । विश्वस्त होकर कहो। मित्र, विजयाई जाकर आप शीघ्र ही विद्याधरों के साथ अंजना को खोजने के लिए आयें । (अवज्ञापूर्वक) इससे अधिक सुनने से बस । हमारे विरह से दुःखी मत होओ । कार्य के विषय में ही विचार करो। वन के मध्य में मित्र को छोड़कर नगर में कैसे जाऊँगा । विदूषक - पवनंजय - विदूषक -

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