Book Title: Anjana Pavananjaynatakam
Author(s): Hastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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से ये भी हाथी दाँत के मोती हो गए। तो दूसरी ओर चलते हैं । (परिक्रमा देकर और देखकर) निश्चित रूप से यह वृक्षों पर लाल अशोक उत्पादित है । ठीक है, इससे याचना करूंगा | हे महान् वृक्ष रक्ताशोक,
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तुम उस नितम्बिनी को मुझे दिखला दो। उसके बायें चरणकमल से असमय में ही पुष्पोद्गम को देने वाले आपका सम्मान करुँगा | ||1611( सोचकर घबड़ाहट के साथ)
मेरे शोचनीय अवस्था को प्राप्त कर लेने पर शोक से पराङ्मुख हुआ यह अपने अशोक नाम की सार्थकता को चुपचाप प्रकाशित कर रहा है | ||17|
तो यहाँ से हम लोग (दूसरी ओर जाकर और देखकर ) यह कामिनी स्त्रियों के मुख की मदिरा के कुरले के रस को चाहने वाला बकुल है। तो इससे याचना करता हूँ । अरे केसर, नए पुष्प की मेखला रूप गुण जिसे प्रिय है, ऐसी मेरी प्रिया को यदि तुम दिखला दोगे तो हे मित्र में निश्चित रूप से तुम्हें उसके मुख की गन्ध रूप दोहले का विस्तार कर दूँगा | 18 ||
(विचार कर) जिन्हें अंजना का वृत्तान्त विदित नहीं है, ऐसे हमें यह पत्तों के अग्रभाग से चुने वाली वर्षा की अग्रबिन्दुओं से आँसू छोड़कर चुपचाप ही शोक कर रहा है। निश्चित रूप से उसने हमे छोड़ दिया है। (परिक्रमा देकर और उत्कण्ठा के साथ देखकर ) के यह नई शिरीष की माला से श्याम, श्याम विप मुझे उस अंजना की बाहुलता कंधों की याद दिलाता है ||1911
गुगल
( सामने देखकर) ओह, यह इधर तमाल वृक्ष के नीचे इन्द्रनीलर्माण निर्मित शिलापट्ट पर चमरी बैठी है। तो इससे पूछता हूँ । अरी चमरी,
मैं तुमसे पूछता हूँ, कहो, क्या लड़खड़ाए हुए, विषम चरणन्यास से मेरी प्रिया ने इस वन प्रदेश का सम्मान किया है ? शोक और कंष्ट के कारण विरह में एकत्रित जिसके बिखरे हुए केशपाश है ऐसा यह तुम्हारे बालों का समूह स्पष्ट रूप से अनुसरण करता है | ||20|
क्या यह नए जलकणों के सिंचन के भय से इसी पर्वत के समीपवर्ती गुफागृह में प्रविष्ट हो गई । निश्चित रूप से नृशंस वर्षाकाल सब जगह अपराधी होता है। (सोनकर) अस्तु । जिसे पहले नहीं खोजा है, ऐसी इसे मैं पर्वत की उपत्यका में खोजता हूँ । ( परिक्रमा देकर और देखकर )
प्रवास पर गए हुए व्यक्तियों के धैर्य रूप सर्वस्व का नाश करने के लिए जोश में भस हुआ यह धनुर्धर कामदेव सामने रोकता हुआ विद्यमान है | ||21|| तो इस समय आक्रमण करता हूँ ।
पहले अनङ्ग (अङ्गरहित) हो, इस प्रकार बहुत बड़ी रूढ़ि का मिथ्या ज्ञान कर विरत होकर सैकड़ों बाणों से बांधने से वञ्चित हुए तुम प्रच्छन्न विचरण करते रहे । आज स्वयं सज्जित होकर मूर्तिमान यहीं यकायक आ गए हो ।
दुमंद, नीच कामदेव क्या तुम मुझे दूसरों जैसा मानते हो | ॥22॥
( सोचकर ) सर्वथा यह हमारे इस प्रकार के उलाहने करे योग्य नहीं है। क्योंकि । चिरकाल तक भाग्य की रुकावट से परस्पर अलग हुए जोड़ों को यह भगवान् रतिवल्लभ शीघ्र ही में समर्थ है | ||23||