Book Title: Anjana Pavananjaynatakam
Author(s): Hastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 70
________________ 54 विदूषक - सखी के प्रति उसका वैसा ही स्नेह था । प्रतिसूर्य - अनन्तर उस पर्वत पर निवास करने वाली गन्धर्वराज मणिचूड की देवी रत्लचूड़ा ने स्त्रियों के करुणविलाप को सुनने से यह क्या है, इस प्रकार इधर उधर दृष्टि डालते हुए भली भांति देखकर घबराहट के साथ आर्य, शीघ्र ही तुम्हारे निवास की समीपपवर्तिनी इन दोनों अशरण स्त्रियों को यमराज के सदृश इस सिंह से बचाओं, ऐसा निवेदन किया । अनन्तर वहां पर बह गन्नवराज मणिबुड बिक्रिया से शरभ रूप बनाकर बचाने की इच्छा से सिंह पर झपटा । तत्क्षण उसे लेकर आकाश मार्ग से कहीं दूर चला गया ||100 पवनंजय - यह बड़े लोगों की रोति है : प्रतिसूर्य - अनन्तर शरम के कार्य को देखने से जिनका भय और काष्ट अधिक हो गया है ऐसी इन दोनों को आश्वस्त करने के लिए उसी समय रल चूड़ा आई, 'सखियो, मत डरो' इस प्रकार धैर्य बंधाती हुई, यथायोग्य रूप से अपना वृत्तान्त कहकर, तुम दोनों कौन हो, कहाँ से आई हो अपना यहाँ आने का क्या कारण है, यह पूछा। अंजना - निर्जन वन में इस प्रकार के आश्वासन को पाकर ऐसी भाग्य वाली मैं पुनः आर्यपुत्र का दर्शन करुंगी, इस प्रकार हृदय में गहरी सांस ली । प्रतिसूर्य - अनन्तर यथायोग्य रूप से वसन्तमाला के द्वारा अञ्जना का वृत्तान्त निवेदन किए जाने पर रत्नचूड़ा सखी के प्रति स्नेह युक्त हो गई। अनन्तर स्वयं आकर गन्धर्वराज मणिचूड ने रत्नचुडा के द्वारा अञ्जना का वृतान्त निवेदन करने पर सौहार्द्र उत्पन्न हुए मन से पुत्री, शोक मत करो। मैं तुम्हारे लिए महाराज महेन्द्र के सदश हूँ, अतः अपनी निजी भूमि में प्रविष्ट हुई हो, इच्छानुसार यहीं ठहरों, ऐसा कहा । पवनंजय - फिर क्या हुआ ? प्रतिसूर्य - इस रलचूडा के द्वारा प्रतिदिन विश्वास बढ़ते रहने पर सुख पूर्वक समय व्यतीत होने पर कदाचित् । इस अञ्जना ने पूर्व दिशा जिस प्रकार उत्कृष्ट तेज के निधि प्रातः कालीन सूर्य को जन्म देती है, उसी प्रकार वत्स हनूमान् को जन्म दिया ||1|| पवनंजय - अनन्तर । प्रतिसूर्य - अनन्तर अपनी इच्छा से विमान पर चढ़कर वहीं जाते हुए मैंने पुत्री अञ्जना के गहन वन में प्रसव के विषय में शोक करती हुई वसन्तमाला के बिलाप की ध्वनि सुनी पवनजय - अनन्तर प्रतिसूर्य - अनन्तर उस मनुष्यों के द्वारा अगोचर वन में स्त्रीजन के रोने को सुनकर, यह क्या है, इस प्रकार उत्कण्ठा से उसी पर्यङ्कगुहा में उतरा । पवनंजय - अनन्तर । प्रतिसूर्य - अनन्तर मेरे दर्शन से ये दोनों आश्वस्त हो जाने पर भी स्त्रोजन सुलम भग्य से पुनः रोने लगी।

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