Book Title: Anjana Pavananjaynatakam
Author(s): Hastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
View full book text
________________
पवनंजय - प्रतिसूर्य -
पवनंजय प्रतिसूर्य
पवनंजय प्रतिसूर्य
अरुना
पवनंजय
-
-
-
बसन्तमाला
प्रतिसूर्य -
पवनंजय
-
विदूषक -
E
53
कि वत्सा अञ्जना, शोक मत करो। निश्चित रूप से यह तुम्हार पूर्वजन्म में उपार्जित कर्म है, जो कि तुम पति का विरह अनुभव कर रही हो । यह कर्म प्रायः समाप्ति पर है। शीघ्र ही महाभाग्य शाली पुत्र को प्रसव करोगी। अतः कुछ समय बीत जाने पर तुम अपने पति पवनंजय को निश्चित रूप से देखोगी । इस प्रकार श्रुतिसुख ( सुनने में सुखकर) मुनि के वचन को प्रत्यक्ष के समान सुनकर उस सब वृत्तान्त को अनुभव सा करते हुए दोनों प्रणामाञ्जलि कर भगवान् की वन्दना की ।
निश्चित रूप से महर्षि लोग दिव्यचक्षु वाले होते हैं ।
अनन्तर कुछ समय सुख पूर्वक यथायोग्य बातचीत कर वे सुन्दर वचन वाले ठहरकर " भद्रे ! तुम दोनों को प्रसूति समय तक इसी गुफा में ठहरना चाहिए, ऐसा कहकर स्वयं अन्तर्धान हो गए ।
अनन्तर
तदनन्तर उसी भगवान मुनि अमितगति के पर्यङ्कासन से जिसका यथार्थ नाम पर्यङ्कगुहा रख दिया था, उसमें ये दोनों बहुत समय तक रही । फिर क्या हुआ |
अनन्सर सूर्य के पश्चिम दिशा में उतरने पर अपने आवास की ओर उन्मुख वन प्राणियों के चारों ओर संचरण करने पर दाढ़ रूपी चन्द्रकला से भयङ्कर मुख वाला, वन को शुन्ध करता हुआ, खेल ही खेल में विदीर्ण किए गए गन्धहस्ती के शिर से चूती हुई रक्त की धारा के लेप से जिसके बहुत सारे गर्दन के बालों का समूह अभ्यर्चित हो रहा था, चमकते हुए मेघ की गर्जना के समान भय उत्पन्न करने वाला क्रोधी सिंह भूमि पर आ पड़ा 118 |
( घबड़ाहट के साथ आँख बन्द कर ) क्या बात है, इस समय भी वह भीषण सिंह प्रत्यक्ष के समान दिखाई दे रहा है ।
युवराज्ञी, इस समय भी मरे सिंह का स्मरण करते हुए मेरा हृदय काँप रहा है ।
हुए
मेरा दुः
वसन्तमाला सहित सजीवित अञ्जना को यहाँ सामने ही देखते खी मन इस विश्वास को प्राप्त नहीं होता है कि वन में सिंह को कौन रोक देगा ? ॥ 19 ॥
(विषाद सहित ) माननीय के समीप में सिंह आ गया, ऐसा सुनते ही मेरा हृदय अत्यधिक रूप से क्षुब्ध हो गया, प्रत्यक्ष रूप से देखने वाली बेचारी वसन्तमाला का तो कहना ही क्या ?
अनन्तर यह वनमाला घबराहट पूर्वक हे वनवासिनी देवियों इस सिंह से रक्षा करो, रक्षा करो, इस प्रकार जोर से विलाप करती हुई, बलवान् वहाँ से कठिनाई से मनुष्य के द्वारा अगोचर रक्षक को न देखती हुई भगवान् मुनि अमित गति के वचनों की अन्यथा शङ्का करती हुई उसी तोन हाथ की दूरी वाले सिंह के सामने गिर गई ।
कष्ट है, अत्यन्त कठिनाई से सुनी जाने वाली बात हो गई ।