Book Title: Anjana Pavananjaynatakam
Author(s): Hastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 61
________________ 45 जिसकी बाई कलाई में स्थित सुन्दर रत्नमयी कंगन पर शोभा पाकर मेरे कंधो के मित्र होकर उत्कृष्ट प्रीति को प्राप्त होते थे । सुन्दर वाणी में तुम जिसके सदृश हो, जिसके नाखून की कान्ति यह तुम्हारी नोंन धारण करनी है, कहो, वह मेरी कान्ता कहाँ है ॥38॥ क्या यह पकने के कारण फूटे हुए अनार के फल का आस्वादन करने में प्रवृत ह गया है । पुनः हमारे प्रश्न के आग्रह से इसकी अपनी अभिलाषा का भङ्ग न हो जाय अत इस समय इसी स्थान में प्रिया की स्थिति बतला दी (कान लगाकर हर्ष पूर्वक ) इधर किञ्चित करघनी के तन्तुओं की ध्वनि सुनाई पड़ रही है। यह स्थूल जघनस्थल के भार के कारण आलस्य युक्त गमन को कहने वाला श्रुतिसुख है। हे हृदय ! तुम्हारा दुःख ध्वस्त हो गया । तुम्हारी विधुरता विरत हो गई। वह झुकी हुई भौहों वाली तुम्हारे सामने यही पर प्राप्त हो गई है || 39 || ती समीप में जाता हूँ ( समीप में जाकर ) क्या यह सारस की आवाज है । मद से मन्थर उच्चारण करते हुए, उसकी करधनी का आवाज का अनुसरण करने वाली यह सरसो (छोटा तालाब) सारस की आवाज से मुझे दूर से लुब्ध कर रही है |140|| ( सोचकर ) अंजना को यहीं आना चाहिए। प्रायः संताप का निवारण करने में समर्थ सरोवरों के तोर शिशिरोपचार की शीघ्रता वाले विरही लोगों को ढूँढते हैं। तो इससे पूछता हूँ। अरी सरसी सुनो जिसकी दोनों भूरेखाये तुम्हारी लहरों, दोनों भुजायें कमलनाल की लता, चित्त प्रसन्न जल, कटि भाग रेत, मुख कमल तथा दोनों नेत्र नीलकमल की समानता को धारण करती है। जिस प्रियतमा का कमल के मध्य स्थित लक्ष्मी अनुसरण करती है, वह अबला क्या तपोवन के समीप चली गई है |4|| क्या बात है ? यह सरसी बिना उत्तर दिए हो पहले के समान स्थित है। इसने निश्चित रूप से अपने जडस्वभाव को प्रदर्शित किया है। जब तक तोर पर स्थित इसी केतकी से पूछता हूँ । अरी केतकी, क्या तेरे कापियों के पुष्प पत्र रूप काम की रेखा के योग्य मेरे कर्णाभूषण की लीला को मेरी प्रणयिनी ने अपने कपोल के समान पीले कान में धारण किया है ||4211 ( सोचकर ) अरे ऐसा नहीं हो सकता। हमारे विरह से खिन्न महेन्द्र पुत्री का यह कौन सा प्रसाधन का अवसर है। (देखकर ) यह फूलों के आसव का लंपट पौरा इधर उपर भ्रमण कर रहा है । तो पूछता हूँ। अरे भ्रमरी के प्राणेश्वर तुम्हारी ध्वनि कानों को रमाने वाली, हमारे मिलन के लिए उत्कण्ठित सुन्दर कण्ठ वाली के गान से शून्य होने पर भी आपका यह मनोहर शंकारी नाद जिसके धीमे उच्चारण रूप समान गुण को प्राप्त करने में समर्थ हैं 1431 क्या बात है, अनवस्थित होकर भौरों पुनः (ध्वनि को) नहीं छोड़ रहा है। (हंसकर ) अथवा यह भौरां पूछने पर क्या प्रत्युत्तर देगा। इधर से हम लोग (परिक्रमा देते हुए देखकर) ओह, यह रजतगिरि के शिखर तल का रेतीला तट इच्छानुसार विहार करने के दोग्य है । (तत्कण्ठा के साथ प्रत्यक्ष के समान आकाश में लक्ष्य अधिकर )

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