Book Title: Anjana Pavananjaynatakam
Author(s): Hastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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तो इस समय इससे मिल जाता हूँ । अहो कामदेव,
कहो, कहो, तुम्हारे दर्प रूप सर्वस्व की भूमि स्वरूप, किसलिय के समान सुकुमार, मेरी शरीरधारी प्राण, चंचल हरिण के समान नेत्र वाली, वन के मध्य में स्वयं संचार करती हुई वनलक्ष्मी क्या तुमने पहले देखी है । 1॥24॥
(सोचकर, हास्यपूर्वक) मैं लो उन्मत्त हो गया हूँ । खेद की बात है, तुम कामदेव नहीं हो । यह पर्वत की ढलान पर रुकी हुई स्फटिक की शिलाभित्ति पर संक्रान्त हुआ मेरा प्रतिबिम्ब है । तो दुसरो ओर खोजता हूँ । (परिक्रमा देकर और उत्कण्ठा पूर्वक देखकर)
इस समय पवित्र मन्द मुस्कराहट वाली, फूले हुए स्वच्छ पुषों से रमणीय यह कुन्दलता मुझे उसकी मन्दमुस्कराहट को याद दिला रही है 1 ॥25॥
यह कदली यहीं समीप में विद्यमान है । तो इसी से पूछता हूं । अरी कदली,
अप्सराओं के सुविदित कुल में उत्पन्न तुम्हें भली प्रकार जानते हैं । तो आपसे प्रेम के कारण पूछते हैं, जरा ध्यान दो । तुम सब भी जिसे देखकर सौन्दर्य से विस्मत हुए थे । वह विद्याधरमनारी द्या तुम्हारे दृष्टिगोचर हुई ! ॥26॥
(सोचकर) यह रम्मा की समता के कारण कदली से ही मैं अप्सरा की भूल से बोल रहा हूँ । अस्तु ! इससे पूछता हूँ ।
हे रम्भोरु ! जिसके दोनों जंघाओं की उपमा पाकर तुम अत्यधिक प्रशंसित हो रही हो, वह मेरी प्राणवल्लभा क्या यहाँ से गई है । 127।। ____ अथवा यह भी सुसंगत नहीं है । क्योंकि - आज भी शीतल यह केले का स्तम्भ बिलकुल भी उसके जङ्घायुगल से समता प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसका जंधायुगल वर्षाकाल में भी सुखकर उष्मा वाला रहता था । ||28॥
तो इससे कैसे पूई (सोचकर) प्रिया इसके समीप सर्वथा नहीं गई है । नहीं तो निश्चित रूप से अंजना की विरहाग्नि के ताप को वसन्तमाला निश्चित रूप से दूर करती । शीतल केले के पत्ते लेकर शय्या रचती और हवा करती 109॥
इस केले का पता तोड़ा नहीं गया है । तो दूसरी ओर खोजता हूँ। (परिक्रमा देकर, स्पर्श का अभिनय कर) वन मे विहार करने के व्यसनी इसी सामने के वायु से पूछता हूँ। अरे वायु, जरा सुनो।
क्या (मेरी) पत्नी यहीं रहती है । मयूर के समान नेत्र वालो इसके रतिश्रम का कहन करने वाले कपोल रेखाओं के पीसने की बूंदों को हटाने में तुम्हीं समर्थ हो । 1800
(गन्ध को सूघकर हर्षपूर्वक)
प्रिया को स्वास के गन्ध को प्रकट करने वाला यह वायु सामने बिना बोले ही कह रहा है कि यह तुम्हारी प्रिया खड़ी ही है | 101
तो अब इसी वायु के विपरीत जाता हूँ 1 (घूमकर और देखकर) क्या यह कपूर के वृक्ष के नीचे नयी-नयी शिला की पतं जिसमें उगी है, ऐसे शिलातल पर कस्तूरी मृग है। अस्तु ! तो इसी से ही पूछता हूँ । अरे बनलक्ष्मी का स्पर्श करने वाले कस्तूरीमृग,