Book Title: Anjana Pavananjaynatakam
Author(s): Hastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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वन में ठहरने का कैसे निश्चय कर रही हो, इस दुष्प्रतिज्ञा को छोड़ो, 'हम
दोनों महेन्द्रपुर चले' ऐसा कहा । वह वचनों को न सुनती हुई रोने लगी। पवनेबय - अरे कष्ट है, कष्ट है । अंजना पर ही यह घटित हुआ । पवनंजय इसके
बाद सुनेगा । विदूषक - (मन ही मन) क्या उन्हीं पर ही यह घटित हुआ । चमूरक -
अनन्तर उस पुरुष ने 'माननीया, स्वामिनी केतुमती की आज्ञा से तुम्हें लेकर जन्मभूमि तक पहुँचाने के लिए आया हूँ । इस समय कैसे तुम्हें मार्ग के बीच गहन वन में छोड़कर जाऊँ ? ऐसा कहा। अनन्तर उसने भी, इस समय अधिक कहने का नाम नौ रत्नागिनी से कहना कि मैंने उसे जन्मभूमि में ही पहुँचा दिया, हम दोनों किसी प्रकार स्तंजनों के साथ जायेगी, ऐसा
कहा । पवनंजय - फिर क्या हुआ । चमूरक -
अनन्तर उसने भी । क्या उपाय है ? तुम भी मेरो अकेसी स्वामिनी हो । अत; तुम्हारी आज्ञा का भी मैं उल्लंघन नहीं कर सकता । दूसरी बात यह है - इसी प्रकार तुम्हारी जन्मभूमि में पहुंचाने में मैं निर्दय भी समर्थ नहीं हूँ । अतः तुम दोनों सर्वथा निजी व्यक्ति के साथ ही जाना । दूसरे की आज्ञा के अधीन मैंने कोई अप्तिक्रमण न किया हो, अतः क्षमा करना, ऐसा कहकर
सर्वथा देवता प्रयत्नपूर्वक रक्षा करेंगे, ऐसा कहकर आकाश में उड़ गया । पवनंजय - (विषादपूर्वक) अनन्तर । चमूरक - अनन्तर यहां पर्वतीय उद्यान वीथी से इसी सैकड़ों पापी प्राणियों से व्याप्त
यह मातङ्गमालिनी नामक गहन वन में पैरों से गिरती पड़ती सखि के साथ
प्रविष्ट हुई। पवनंजय - (आक्रोश के साथ) प्रिये, इस समय कहाँ हो ? ( मूर्छित हो जाता है) विदूषक - (आँखों में आँसू भरकर) वह तो निश्चित रूप से निष्चर हो गई । चमूरक और लवलिका - आर्य, वह कौन ? विदूषक - यह उसके पति है। दोनों - हाय, धिक्कार है। विदूषक - मित्र ! धैर्य धारण करो, धैर्य धारण करो । पवनंजय - (धैर्य धारण कर)
जो 'तीन चार मास में बिना बिलम्ब किए ही मुझे वापिस आया जाना' ऐसा पूछकर उस समय चला गया था, वह मैं इतने समय में आया हूँ । हे दुर्बल शरीर वाली । इस प्रकार तुम्हारे ही बहुत बड़े कष्ट का हेतु इस समय प्राणप्रिय
मैं स्वयं निर्लज्ज कैसे हूँ ? |24|| विदूषक - ओह, भाग्य की दुश्चेष्टा । पवनंजय - बिना बाधा के ही क्रूर जंगली जानवरों से अधिष्ठित, वन की मध्यभूमि का
अवगाह्न करने वाली हे प्रेयसि तुम्हारे द्वारा खण्डित यह व्यक्ति इस समय भगोड़ी अवस्था को प्राप्त कराया गया । 1125|