Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ १ वर्ष ४०, कि.. अनेकान्त का आकण्ठ पान करने की इच्छा से ही वे सहस्रचक्षु चित्रण नही किया है केवल इतना "इसके आगे की केलिएवं सहस्रबाह होने की कामना करते है। इन रसमय कथा का वर्णन कवि को इष्ट नही ।" लिखकर संतुष्ट हो चित्रणो से आगे बढ़कर कवि राजदम्पति के समागम वर्णन गए हैं । तदपि सुरति के अन्त मे त्रिशला के आह्लादित में तन्मय हो गया है, जिसमे 'रस' परिपोष अवस्था तक अगो का चित्रण करके अभीष्ट व्यजित कर दिया है - पहुंच गया है अर्थात् 'रति भाव अपने अनुभाबो सचारी क्रम से अवयव निश्चेष्ट हुए भावों, विभावों आदि सभी अवयवो से सम्पुष्ट होकर रस तन्द्रा में मग्न हुयी रानी निष्पत्ति मे पूर्णतः सफल है। आश्रय व आलम्बन ने एक पर नप के लोचन सजग रहे दूसरे को समान रूप से उद्दीप्त करके रस राचार को और बन उस मोहक छवि के ध्यानी।। भी प्रभावी बना दिया है ...। इस भाति मर्यादित वर्णन द्वारा कवि ने रसमयता का महीप के काम प्रसक्त व क्य से सचार कर दिया है । महाकाव्यकार ने त्रिशला के 'ब्रीडा' स-वेग तारल्य-युता हुयी प्रिया एवं 'लज्जा' भाव की भी सुन्दर अभिव्यक्ति की है। यद्यपि वसत का स्पर्शहुआ कि आम्र का ये प्रसग रस निष्पत्ति मे सफल नही है परन्तु भाव व्यजना शरीर सर्वाग प्रफुल्ल हो गया। प्रभावकारी । इसी प्रकार लोकोत्तर सौन्दर्य के स्वामी हुयी तभी सो भुज पजर-स्थिता राजकुमार महावीर से विवाह करने को समुत्सुक राज समाकुला वाल - कृरग - शावकी, नितात शुक्लाम्बरा थी अभी अभी कन्याओ की, अभिलाषा' और 'पूर्वराग' व्यंजना" मे रस का निरवरा भूपति-भामिनी हुयी। सुमधुर आभास मिलता है। प्रणय प्रसग मे ही अनूप जी ने आगे त्रिशला को _ 'पार्श्व प्रभाकर'-कवि वीरेन्द्रप्रसाद जैन के इस 'नवाजिका' व 'प्रशान्त साध्वी' समान चित्रित करके भाव प्रबन्ध काव्य मे शृगार रम का कही भी परिपाक नही हो के उदात्तीकरण का प्रयास किया है। कवि के शब्दों में- सका है। आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत के पालक पार्श्वनाथ के उरोज निले। बने मगाक्षी के जीवन में स्नेहरागात्मक सम्बन्धो का निदर्शन सम्भव न था सु-केश भी बन्धन हीन हो गए अतः कवि ने कुमार पापर्व के हृदय मे क्षणमात्र को उद्भूत मनोज्ञ कांची अति निर्गणा हुई 'नवाजिका' सी त्रिशला प्रतीत थी। होने वाली काम भावनाओ की मार्मिक अभिव्यक्ति कर दी नितात नीरजन नेत्र थे तथा है जिनमे शृगार का रसाभास अवश्य होता है। वस्तुत विराग से ओष्ठ हुए पवित्र थे ये भाव शान्तरसावसित है । पार्श्वनाथ के जनक जननी के महान निर्वेद हा रतान्त मे सयोगवर्णन में रस निष्पत्ति की सम्भावना थी किन्तु कवि प्रशा-त साध्वी सम थी नृपागना । ने उस प्रेमानुराग को वे वल दो पदो मे इस प्रकार वणित उपर्यक्त वर्णनो के औचित्य (आश्रयगत) पर आक्षेप किया है जिसमे न भावोत्कर्ष हो सका है और न कलात्मक किए गए है। वैसे भी विद्वानो ने शृगार रस की उच्चता सौन्वयं का समावेश । स्वीकार करते हुए उसे शारीरिक वासना से पृथक रखने तीर्थकर भगवान महावीर'---वीरेन्द्रप्रसाद जैन का उपदेश किया है। वियोग श्रृंगार के उदाहरण प्रस्तुत इस महाकाव्य मे भी शृगार रस के सफल आयोजन मे महाकाव्य मे दुर्लभ हैं। अक्षम रहे है। वस्तुत उनका अभीष्ट ही शान्त, करुण एवं परम ज्योति महावीर'-महाकाव्य में भी वियोग वीर रस की निष्पत्ति रहा है। शृगार रसाभासी स्थल श्रृंगार नगण्य है। सयोग-शृंगार रस की व्यंजना 'सुधेश' काव्य नायक (कुमार महावीर) की युवावस्था में पनपी जी ने नायक (महावीर) के माता-पिता के सम्मिलन वर्णन काम भावनाओ तक सीमित हैं। योवन के आगमन पर द्वारा की है। रसमय पावस ऋतु मे प्रकृति मे सर्वत्र व्याप्त हृदय मे वागना भाव की जागृति महज वाभाविक है। प्रेम व्यापार सिद्धार्थ त्रिशला को भी कामोद्दीप्त करता है कुमार वर्द्धमान का मन-खग भी कल्पना के नभ में मधुरपरन्तु कवि ने शील का निर्वाह करते हुए सम्भोग का मदिर स्वप्न र जाता है, हृदय सुरीले राग सुनने की इच्छा

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