Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04 Author(s): Padmachandra Shastri Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 7
________________ हिन्दी जैन महाकाव्यों में शृंगार रस ५ काम की विभिन्न अवस्थाएं, नायक नायिका भेद, वृती या सखी भेद आदि समाविष्ट हो जाते हैं श्रृंगार ही एकमात्र ऐसा रस है जो उभयनिष्ठ है अर्थात् जिसमें आश्रय और आलम्बन एक दूसरे को उद्दीप्त करते है तथा मिश्र भाव से घनिष्ठ भी हैं । रुचि एवं स्वभाव वाले पात्रों की अवस्थिति के कारण रसों के समावेश की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है। सदपि रस का सफल निर्वहण अत्यंत कठिन कार्य है क्योंकि प्रबन्धकार को सम्बन्ध निर्वाह, वस्तुगति, घटनाक्रम, चरित्र योजना, औचित्य, उद्देश्य आदि कितने ही बिन्दुओं पर दृष्टि रखनी पड़ती है। समीक्य हिन्दी जैन महाकाव्यों (पं० अनूप शर्मा कृत 'वर्द्धमान'; धीरेन्द्रप्रसाद जैन रचित 'तीर्थंकर भगवान महावीर' एवं पार्श्व प्रभाकर': धन्यकुमार जैन 'सुधेश रचितं' 'परम ज्योति महावीर डा० बिहारी गुप्त रचित 'तीर्थंकर महावीर', रघुवीर शरण 'मित्र' रचित ' 'वो नयन' तथा श्रभयकुमार यौधेय रचित 'श्रमण भगवान महावीर चरित्र' ) में रस आयोजन का कार्य अत्यंत कठिन हो गया है क्योंकि सभी काव्यो के नायक तीर्थकर हैं जो स्वभाव से अरागी होते हैं तथा उनके समग्र जीवन में भी रागात्मक घटनाओं का पात-प्रतिघात नगण्य होता है। अतएव तीर्थंकर के जीवन वृत्त पर आधारित प्रबन्ध मे शान्त, भक्ति करण तथा वीर रसों का समायोजन तो सम्भावित है किन्तु सर्वाधिक दुरूह है, दुह है श्रृंगार स की निष्पत्ति । तदपि आलोच्य कृतियों मे शृंगार रस के परिपाक का प्रयास कवियों ने अपनी-अपनी दृष्टि-भावना अनुरूप किया है । मानव जीवन में सबसे अधिक व्यापक, उत्तेजक, प्रभाव एवं सक्रिय वृत्ति 'रति' है रति श्रृंगार रस का स्थायी भाव है | महाकवि वनारसी दास ने श्रृंगार रस का स्थायी भाव 'शोभा' माना है जो बहुत उपयुक्त नही प्रतीत होता क्योंकि शोभा गुण या विशेषण है स्थायी भाव नहीं श्रृंगार रस के दो भेद माने गए हैं— सयोग तथा वियोग ( या विप्रलम्भ ) नायक नायिका के परस्पर अनुकूल दर्शन, स्पर्श, आलिंगन चुम्वन, समागम आदि व्यवहार को सयोग कहते हैं इसके विपरीत पंचेद्रियों के सम्बन्धभाव को वियोग श्रृंगार कहते हैं। वियोग केवल समागम अभाव की दशा नहीं मिलन के अभाव की भी दशा है। विप्रलम्भ शृंगार के पूर्वराग, मान, प्रवास, करुण चार भेद तथा प्रत्येक के उपप्रभेद भो है। श्रृंगार रस का महत्व इस दृष्टि या तक्ष्य से स्पष्ट है कि इसके अन्तर्गत प्रायः सभी संचारी भाव स्थायी भाव अनेकों अनुभाव सात्विक भाव, समीक्ष्य महाकाव्यों में संयोग श्रृंगार रस की व्यंजना मुख्यत: तीन (आय) माध्यमो से हुयी है। प्रथम तीर्थंकर के माता-पिता के अनुराग या पारस्परिक प्रणय व्यापार वर्णन में दूसरी, वर्धमान एव यशोदा के सम्मिलन वर्णन में तथा तीसरी अप्सराओं द्वारा नायक की साधना में उपसर्ग उत्पन्न करने के उद्देश्य से प्रदर्शित काम चेष्टाओं के चित्रण मे वियोग श्रृंगार रस के स्थल आलोच्य महाकाव्यों में अत्यल्प है । विभिन्न प्रबन्धो मे शृंगार रसआयोजन का स्वरूप निम्नलिखित है। 'वर्द्धमान' - '५० अनूप शर्मा रचित इस महाकाव्य के नायक वर्द्धमान महावीर है। वीतरागी तीर्थंकर के जीवन में अनुराग का स्थान कहाँ ? वर्द्धमान के हृदय का समस्त राग ( रति ) मुक्ति के करण की व्यय है किसी लौकिक रमणी की प्राप्ति को उद्विग्न नहीं अतः जहाँ तक नायक के माध्यन से श्रृंगार रस व्यजना का प्रश्न है कवि ने वर्द्धमान के स्वप्न मे 'दिव्य विगह की अवतारणा कर दी है।' इस सन्दर्भ में डा० प्रेमनारायण टण्डन का मत है "मेह त्याग के बाद वर्द्धमान का जीवन इन नीरस है कि वह काव्यका अंग नहीं बन पाता, महाकवि ने विस्तृत दर्शनमरुस्थल मुक्ति विवाह के रूप में एक रम्य निकुंज की रचना कर दो है । तदपि यह प्रसग रसोडेक में सक्षम है । महाकाव्यकार ने नायक के जीवन मे रागात्मक न्यूनता को राजदम्पति ( वर्द्धमान के माता-पिता) के प्रेमालाप तथा प्रणयकेलि चित्रण द्वारा दूर किया है । कुल ५ सर्गों वाले इस महाकाव्य के प्रारम्भिक सात सग में कवि ने केवल सिद्धार्थ त्रिशला के पारस्परिक अनुराग, स्नेहाकर्षण व प्रेम भाव का विशद व्यापक वर्णन किया है । नवयौवना पत्नी (शिला) की वल्लरी के समान कोमल देहयष्टि मृणाल जैसे मुद्दोन हस्त, पोफल जैसे पुष्ट उरोज, पिक कूजन सम मधुर वाणी मरासी जैसी पाल, मृगी समान सुन्दर नेत्र, बंकिम चितवन आदि सिद्धार्थ के चित को चचलोद्दीप्त करते रहते हैं तथा उस अनिय रूप माधुरीPage Navigation
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