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तत्त्व : आचार : कथानुयोग]
कथानुयोग-रामचरित : दशरथ जातक
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वनमाला को उनके पिता के पास छोड़कर वहाँ से प्रस्थान कर गये। चलते-चलते खेमंजलि नामक नगर में पहचे । राम के आदेश से लक्ष्मण नगर में गया। वहाँ के राजा का नाम शत्र दमन था। राजा को अपने बल का बड़ा घमंड था । लक्ष्मण ने वहाँ यह सुना कि राजा शत्रुदमन ने यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि जो उसके पाँच शक्ति-प्रहार झेल पाने में समर्थ होगा, वह उसके साथ अपनी कन्या का विवाह कर देगा। उसकी कन्या का नाम जितपद्मा था। लक्ष्मण राज-सभा में उपस्थिति हुआ। उसने भरत के दूत के रूप में अपना परिचय दिया तथा राजा के पाँच-शक्ति प्रहार झेल पाने की चुनौती स्वीकार की । राजकुमारी जितपमा ने ज्यों ही लक्ष्मण को देखा, वह उस पर मुग्ध हो गई। उसने लक्ष्मण को शक्ति-प्रहार के झंझट में न पड़ने की अभ्यर्थना की। लक्ष्मण ने उससे कहा-"सब ठीक होगा, तुम निश्चिन्त रहो।" राजा ने पांच शक्ति-प्रहार किए। लक्ष्मण ने उन्हें दोनों हाथों, दोनो कक्षों तथा दांतों द्वारा रोक लिया। देवता लक्ष्मण के पराक्रम से प्रसन्न हुए । हर्ष-वश उन्होंने आकाश से पुष्प बरसाए । लक्ष्मण ने राजा शत्रुदमन को ललकारा, उससे कहा - "राजन् ! तुम भी अब मेरा एक प्रहार झेलने को तैयार हो जाओ।" राजा शत्रुदमन काँपने लगा। वह भय भीत हो गया। राजकुमारी जितपद्मा की प्रार्थना पर लक्ष्मण ने उसे छोड़ दिया। राजा ने लक्ष्मण से अपनी पुत्री स्वीकार करने की प्रार्थना की। लक्ष्मण बोला- "इस सम्बन्ध में मेरे बड़े भाई जाने।" राजा शत्रुदमन राम और सीता को प्रार्थना कर सादर नगर में लाया। राम की आज्ञा से लक्ष्मण के साथ जितपद्मा का विवाह हो गया। सीता और लक्ष्मण कुछ दिन वहाँ रहे । जितपद्मा को वहीं छोड़कर वन को चले गए।
चलते-चलते वे वंशस्थल नामक नगर में पहुँचे । वहाँ देखा, राजा, उसके परिजन तथा प्रजाजन-- सभी भयभीत हैं, भागे जा रहे हैं। पूछने पर उन्होंने बाया कि पर्वत पर महाभय है। अत्यन्त साहसी राम, लक्ष्मण सीता को साथ लिए पर्वत गए। उन्होंने वहाँ देखा-दो मुनि ध्यानस्थ हैं, निश्चल सुस्थिर खड़े हैं । साँप, अजगर आदि विषधर प्राणियों ने चारों ओर उन्हें घेर रखा है। राम वहां गए, धनुष की नोक से उन्हें वहाँ से हटाया, मुनि की भक्ति, आराधना की। पूर्व-जन्म के वैर के कारण एक देव द्वारा प्रेरित भूतों एवं पिशाचों ने विविध उपसर्ग करते हुए वहाँ भयावह दृश्य उपस्थित कर रखा था। राम और लक्ष्मण ने उनको वहाँ से भगाया। वातावरण निरुपद्रव तथा शान्त बनाया। मूनि द्वय को उसी रात शुक्ल ध्यानावस्था में केवल-ज्ञान प्राप्त हुआ। देवताओं ने केवली भगवान् की महिमा, वर्धापना की। राम ने उनसे उपद्रव का कारण पूछा। उन्होंने बताया-"अमृतस्वर नामक नगर था। विजय पर्वत नामक वहाँ का राजा था। उसकी रानी का नाम उपभोगा था। वसुभूति नामक ब्राह्मण रानी पर आसक्त था। एक बार का प्रसंग है, राजा ने वसुभूति को एक दूत के साथ कार्यवश विदेश भेजा। वसुभूति ने रास्ते में दूत की हत्या कर दी। वह वापस अमृतस्वर लौट आया। उसने राजा से कहा-'दूत मुझसे बोला कि मैं अकेला ही जाना चाहता हूँ। उसने मुझे साथ ले जाना नहीं चाहा; इसीलिए मैं वापस लौट आया हूँ।' उसका रानी के साथ अवैध सम्बन्ध था हो। एक दिन उसने रानी के समक्ष प्रस्ताव रखा'तुम्हारे उदित और मुदित नामक कुमार हमारे सुख-भोग में बाधक हैं; अतः इनको समाप्त कर डालो।' ब्राह्मण की पत्नी को यह भेद ज्ञात हो गया। उसने राजकुमारों को बचाने के लिए इस सम्बन्ध में उन्हें सूचित कर दिया। राजकुमारों ने खड्ग से ब्राह्मण को मौत के घाट उतार दिया। संसार के कुत्सित तथा जघन्य रूप पर चिन्तन कर राजकुमार विरक्त हो गये। उन्होंने मतिवधन नामक मुनि के पास प्रवज्या स्वीकार कर ली।
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