Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Concept Publishing Company

View full book text
Previous | Next

Page 821
________________ तब : आचारः कथानुयोग ] परिशिष्ट - २ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ७६१ ७. खलु पच्छाभत्तिकाङ्ग – एक बार भोजन समाप्त करने के बाद खलु नामक पक्षी की तरह पश्चात् प्राप्त भोजन ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा । ८. आरण्यकाङ्ग अरण्य में वास करने की प्रतिज्ञा । ६. वृक्ष मूलिकाङ्ग – वृक्ष के नीचे रहने की प्रतिज्ञा । - १०. अन्यवकाशिकाङ्ग — खुले मैदान में रहने की प्रतिज्ञा । ११. श्मशानिकाङ्ग - श्मशान में रहने की प्रतिज्ञा । १२. यथासंस्थिकाङ्ग -जो भी बिछाया गया हो, वह यथासंस्थिक है । "यह तेरे लिए है" इस प्रकार पहले उद्देश्य करके बिछाये गये शयनासन को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा । १३. नैसाद्याकांङ्ग — बिना लेटे, सोने और आराम करने की प्रतिज्ञा । ध्यान (चार) - 1 – प्रथम ध्यान में विर्तक, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता, ये पाँच अंग हैं । ये (वस्तु) में चित्तका दृढ़ प्रवेश वितर्क कहलाता है । यह मन को ध्येय से बाहर नहीं जाने देने वाली मनोवृत्ति है । प्रीति का अर्थ है - मानसिक आनन्द । काम, व्यापाद सत्यानमृद्ध, औद्धत्य, विचिकित्सा; इस पांच नीवरणों को अपने में नष्ट हुए देख प्रमोद उत्पन्न होता है और प्रमोद से प्रीति उत्पन्न होती है । सुख का तात्पर्य है— कायिक सौख्य; प्रीति से शरीर शान्त हो जाता है और इससे सुख उत्पन्न होता है। एकाग्रता का अर्थ है-—समाधि । इस प्रकार काम रहितता, अकुशल धर्मों से विरहितता, सवितर्क सविचार और विवेक से उत्पन्न प्रीति-सुख से प्रथम प्राप्त होता है । द्वितीय ध्यान में वितर्क और विचार; इन दो अंगों का अभाव होता है । इनके अभाव से आभ्यन्तरिक प्रसाद व चिस की एकाग्रता प्राप्त होती है । द्वितीय ध्यान में श्रद्धा की प्रबलता तथा प्रीति, सुख और एकाग्रता की प्रधानता बनी रहती है । तृतीय ध्यान में तीसरे अंग प्रीति का भी अभाव होता है । इसमें प्रमुख तथा एकाग्रता की प्रधानता कहती है। सुख की भावना साधक के चित्त में विशेष उत्पन्न नहीं करती है । चित में विशेष क्षान्ति तथा समाधान का उदय होता है । चतुर्थं ध्यान में चतुर्थ अंग का मी अभाव होता है। एकाग्रता के साथ उपेक्षा और स्मृति ; दो मनोवृत्तियाँ होती हैं। इसमें शारीरिक सुख-दुःख का सर्वथा त्याग तथा राग-द्वेष से विरहितता होती है। इस सर्वोत्तम ध्यान में सुख-दुःख के त्याग से व सौमनस्य- दौर्मनस्य के अस्त हो जाने पर चित्त सर्वथा निर्मल तथा विशुद्ध बन जाता है । नालि - अनाज नापने के लिए प्राचीन काल में प्रयुक्त माप, जो कि वर्तमान के डेढ़ सेर के बराबर होता था ।" निदान - कारण । १. बुद्ध कालीन भारतीय भूगोल, पृ० ५५२ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858