Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Concept Publishing Company

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Page 827
________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] परिशिष्ट - २ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ७६७ शैक्ष्य - अर्हत् फल को छोड़ शेष चार मार्गों तथा तीन फलों को प्राप्त व्यक्ति शैक्ष्य कहे जाते हैं; क्योंकि अभी उन्हें सीखना बाकी है। जो अहंत् फल को प्राप्त हैं, वे ही अशैक्ष्य हैं । शौण्डिक कर्मकर- शराब बनाने वाला । भ्रमण परिष्कार - भिक्षु द्वारा ग्राह्य चार प्रकार के पदार्थ : १. चीवर वस्त्र, २. पिण्डपात - भिक्षान्न, ३. शयनासन - घर और ४. ग्लान - प्रत्यय - भैषज्य - रोगी के लिए पथ्य व औषधि 1 श्रामणेर - प्रव्रजित हो, कषाय वस्त्रधारण करना । इस अवस्था में बौद्ध साहित्य का अध्ययन करवाया जाता है। साधक को गुरु के उपपात में रह कर, १. प्राणातिपात विरति, २. अदत्त - विरति, ३. अब्रह्मचर्य विरति, ४. मृषावाद - विरति ५. मादक द्रव्य - विरति, ६. विकाल भोजन - विरति, ७. नृत्य-संगीत वाद्य व अश्लील हाव-भाव विरति, ८ मालागन्ध - विलेपन आदि की विरति, ६. उच्चासन-विरंति और १०. स्वर्ण रजत- विरति इन दस शीलों का व्रत लेना होता है । संगति - भवितव्यता | संघाट - जाल । संघादिसेस - अपराध की परिशुद्धि के लिए दोषी भिक्षु का संघ द्वारा कुछ समय के लिए संघ से बहिष्कृत किया जाना । संज्ञा - इन्द्रिय और विषय के एक साथ मिलने पर अनुकूल-प्रतिकूल वेदना के बाद यह अमुक विषय है' इस प्रकार का जो ज्ञान होता है, उसे संज्ञा कहते हैं । संज्ञा - वेदयित-निरोध — इस समाधि में संज्ञा और वेदना का अभाव होता है । संज्ञा - वेदयति निरोध को समापन्न हुए भिक्षु को यह नहीं होता-- "मैं संज्ञा-वेदयित-निरोध को समापन्न होऊँगा", "मैं संज्ञा वेदयित-निरोध को समापन्न हो रहा हूँ", या "मैं, संज्ञावेदयित-निरोध को समापन्न हुआ ।" उसका चित्त पहले से ही इस प्रकार अभ्यस्त होता है कि वह उस स्थिति को पहुँच जाता है । इस समाधि में पहले वचन संस्कार निरुद्ध होता है फिर काय - संस्कार और फिर बाद में चित्त-संस्कार | संतुषित--तुषित देव भवन के देव पुत्र | संस्थागार – सभा भवन । सकृदागामी - एक बार आने वाला। स्रोतापन्न भिक्षु उत्साहित होकर काम-राग (इन्द्रियलिप्सा) और प्रतिघ ( दूसरे के प्रति अनिष्ट करने की भावना ) -- इन दो बन्धनों पर विजय पाकर मुक्ति मार्ग में आरूढ़ हो जाता है। इस भूमि में आस्रव-क्षय ( क्लेशों का नाश) करना प्रधान कार्य रहता है । यदि वह इस जन्म में अर्हत् नहीं होता तो अधिक से-अधिक एक बार और जन्म लेता है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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