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तब : आचारः कथानुयोग ]
परिशिष्ट - २ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश
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७. खलु पच्छाभत्तिकाङ्ग – एक बार भोजन समाप्त करने के बाद खलु नामक पक्षी की तरह पश्चात् प्राप्त भोजन ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा ।
८. आरण्यकाङ्ग अरण्य में वास करने की प्रतिज्ञा ।
६. वृक्ष मूलिकाङ्ग – वृक्ष के नीचे रहने की प्रतिज्ञा ।
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१०. अन्यवकाशिकाङ्ग — खुले मैदान में रहने की प्रतिज्ञा ।
११. श्मशानिकाङ्ग - श्मशान में रहने की प्रतिज्ञा ।
१२. यथासंस्थिकाङ्ग -जो भी बिछाया गया हो, वह यथासंस्थिक है । "यह तेरे लिए है" इस प्रकार पहले उद्देश्य करके बिछाये गये शयनासन को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा ।
१३. नैसाद्याकांङ्ग — बिना लेटे, सोने और आराम करने की प्रतिज्ञा ।
ध्यान (चार) - 1 – प्रथम ध्यान में विर्तक, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता, ये पाँच अंग हैं । ये (वस्तु) में चित्तका दृढ़ प्रवेश वितर्क कहलाता है । यह मन को ध्येय से बाहर नहीं जाने देने वाली मनोवृत्ति है । प्रीति का अर्थ है - मानसिक आनन्द । काम, व्यापाद सत्यानमृद्ध, औद्धत्य, विचिकित्सा; इस पांच नीवरणों को अपने में नष्ट हुए देख प्रमोद उत्पन्न होता है और प्रमोद से प्रीति उत्पन्न होती है । सुख का तात्पर्य है— कायिक सौख्य; प्रीति से शरीर शान्त हो जाता है और इससे सुख उत्पन्न होता है। एकाग्रता का अर्थ है-—समाधि । इस प्रकार काम रहितता, अकुशल धर्मों से विरहितता, सवितर्क सविचार और विवेक से उत्पन्न प्रीति-सुख से प्रथम प्राप्त होता है ।
द्वितीय ध्यान में वितर्क और विचार; इन दो अंगों का अभाव होता है । इनके अभाव से आभ्यन्तरिक प्रसाद व चिस की एकाग्रता प्राप्त होती है । द्वितीय ध्यान में श्रद्धा की प्रबलता तथा प्रीति, सुख और एकाग्रता की प्रधानता बनी रहती है ।
तृतीय ध्यान में तीसरे अंग प्रीति का भी अभाव होता है । इसमें प्रमुख तथा एकाग्रता की प्रधानता कहती है। सुख की भावना साधक के चित्त में विशेष उत्पन्न नहीं करती है । चित में विशेष क्षान्ति तथा समाधान का उदय होता है ।
चतुर्थं ध्यान में चतुर्थ अंग का मी अभाव होता है। एकाग्रता के साथ उपेक्षा और स्मृति ;
दो मनोवृत्तियाँ होती हैं। इसमें शारीरिक सुख-दुःख का सर्वथा त्याग तथा राग-द्वेष से विरहितता होती है। इस सर्वोत्तम ध्यान में सुख-दुःख के त्याग से व सौमनस्य- दौर्मनस्य के अस्त हो जाने पर चित्त सर्वथा निर्मल तथा विशुद्ध बन जाता है ।
नालि - अनाज नापने के लिए प्राचीन काल में प्रयुक्त माप, जो कि वर्तमान के डेढ़ सेर के बराबर होता था ।"
निदान - कारण ।
१. बुद्ध कालीन भारतीय भूगोल, पृ० ५५२ ।
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