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७६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ निर्माणरति देवता-ये देवता अपनी इच्छा से अपने भिन्न-भिन्न रूप बदलते रहते हैं। इसी
में उन्हें आनन्द मिलता है। मनुष्यों के आठ सौ वर्ष के समान इनका एक अहोरात्र होता है। तीस अहोरात्र का एक मास और बारह मास का एक वर्ष । ऐसे आठ हजार दिव्य
वर्षों का उनका आयुष्य होता है। निस्सग्गिय पाचित्तय-अपराध का प्रतिकार संघ, बहुत से भिक्षु या एक भिक्षु के समक्ष
स्वीकार कर उसे छोड़ देने पर हो जाता है। नंगम-नगर-सेठ की तरह का एक अवैतनिक राजकीय पद, जो सम्भवतः श्रेष्ठी से उच्च
होता है। नर्याणिक-दुःख से पार करने वाला। नवसंज्ञानासंज्ञायतन-चार अरूप ब्रह्मलोक में से चौथा। नैष्कर्म पारमिता-कारागार में चिरकाल तक रहने वाला व्यक्ति कारागार के प्रति स्नेह
नहीं रखता और न वहां रहने के लिए ही उत्कण्ठित रहता है ; उसी प्रकार सब योनियाँ
(भवों) को कारागार समझना, उनसे ऊब कर उन्हें छोड़ने की इच्छा करना । पंचशील-१. प्राणातिपात से विरत रहँगा, २. अदत्तादान से विरत रहूँगा, ३. अब्रह्मचर्य से
विरत रहूँगा, ४. मृषावाद से विरत रहूँगा और ५. मादक द्रव्यों के सेवन से विरत
रहूँगा। पटि भान-विचित्र प्रश्नों का व्याख्यान । परनिमित वशवर्ती देवता-इनके निवास स्थान पर मार का आधिपत्य है। मनुष्यों के
सोलह सौ वर्ष के समान इनका एक अहोरात्र होता है। तीस अहोरात्र का एक मास और बारह मास का एक वर्ष । ऐसे सोलह हजार दिव्य वर्षों का उनका आयुष्य
होता है। परमाथं पारमिता-साधना में पूर्ण रूपेण दृढ़ संकल्प होना। प्राणोत्सर्ग भले ही हो जाये,
किन्तु संकल्प से विचलित न होना । परामर्थ पारमिता दस होती हैं। परिवेण-वह स्थान, जहाँ भिक्षु एकत्रित होकर पठन-पाठन करते हैं । यह स्थान चारों ओर
से घिरा हुआ होता है और बीच में एक आंगन होता है। पांच महात्याग-धन, अंग, जीवन, सन्तान व भार्या का त्याग । पांच महाविलोकन-तुषित् लोक में रहते हुए बोधिसत्त्व द्वारा अपने जन्म सम्बन्धी समय,
द्वीप, देश, कुल, माता तथा उसके आयु-परिणाम के बारे में सोचना। पांसुकूलिक-चीथड़ों से बने चीवरों को पहनने की प्रतिज्ञा वाला। पाचित्तिय-आत्मालोचन पूर्वक प्रायश्चित्त करना । पाटि देसनीय-दोषी भिक्षु संघ से निवेदन करता है-"मैंने निन्दनीय व अयुक्त कार्य किया
है। मैं उसके लिए क्षमा याचना करता हूँ।"
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