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________________ तत्त्व : आचारः कथानयोग] परिशिष्ट-२ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ७६३ पारमिता-साधना के लिए दृढ़ संकल्प होकर बैठना, जिसमें अपने शरीर की सार-सम्भाल ___ का सर्वथा परित्याग कर दिया जाता है। पारमिता दस होती हैं। पाराजिक-मारी अपराध किये जाने पर भिक्षु को सदा के लिए संघ से निकाल दिया जाना। पिण्डपात-भिक्षु अपना पात्र लेकर गृहस्थ के द्वार पर खड़ा हो जाता है। उस समय वह दष्टि नीचे किये और शान्त भाव से रहता है। घर का कोई व्यक्ति भिक्षा लाकर पात्र में रख देता है और वह झुक कर भिक्षु को प्रणाम करता है। भिक्षु आशीर्वाद देकर आगे बढ़ जाता है। पात्र जब पूर्ण हो जाता है तो भिक्षु अपने स्थान पर लौट आता है। निमंत्रण देकर परोसा गया भोजन भी पिण्डपात के अन्तर्गत है। पिण्डपातिक–माधुकरी वृत्ति वाला। पुद्गल-व्यक्ति । पूर्व लक्षण-गृह-त्याग के पूर्व उद्यान-यात्रा को जाते हुए बोधिसत्त्व को प्रव्रज्यार्थ प्ररित करने के लिए सहम्पति ब्रह्मा द्वारा वृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित को उपस्थित करना।। पुथग् जन-साधारण जन, जो कि आर्य अवस्था को प्राप्त न हुआ हो। मुक्ति मार्ग की वे आठ आर्य अवस्थाएँ हैं---श्रोतापन्न मार्ग तथा फल, सकृदागामी मार्ग तथा फल, अना. गामि मार्ग तथा फल, अर्हत मार्ग तथा फल । प्रज्ञाप्ति-विधान। प्रज्ञा--शून्यता का पूर्ण ज्ञान । अविद्या का नाश । प्रज्ञापारमिता--जिस प्रकार भिक्षु उत्तम, मध्यम तथा अधम कुलों में से किसी कुल को बिना छोड़े, भिक्षा मांगते हुए अपना निर्वाह करता है, उसी प्रकार पण्डित-जनों से सर्वदा प्रश्न पूछते हुए प्रज्ञा की सीमा के अन्त तक पहुंचना । प्रतीत्य समुत्पाद-सापेक्ष कारणतावाद । प्रतीत्य-किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर समुत्पाद, -अन्य वस्तु की उत्पत्ति । किसी वस्तु के उत्पन्न होने पर दूसरी वस्तु की उत्पत्ति । १. रूप, २. वेदना, ३. संज्ञा, ४. संस्कार और ५. विज्ञान-ये पांच उपादन स्कन्ध प्रतिपाद–मार्ग, ज्ञान। प्रतिसंवित् प्राप्त-प्रतिसम्भिदा प्राप्त प्रभेदगत ज्ञान प्रतिसम्भिदा है । ये चार हैं : १. अर्थ-प्रतिसम्भिदा–हेतुफल अथवा जो कुछ प्रत्यय से उत्पन्न है, निर्वाण, कहे गये का अर्थ, विपाक और क्रिया-ये पाँच धर्म 'अर्थ' कहलाते हैं । उस अर्थ का प्रत्यवेक्षण करने वाले का उस अर्थ में प्रभेदगत ज्ञान अर्थ-प्रतिसम्मिदा है। २. धर्म-प्रतिसम्भिदा-जो कोई फल को उत्पन्न करने वाला हेतु, आर्य-मार्ग भाषित, कुशल, अकुशल-इन पाँचों को 'धर्म' कहा जाता है। उस धर्म का प्रत्यवेक्षण करने वाले का उस धर्म का प्रभेदगत ज्ञान धर्मप्रतिसम्भिदा है। , ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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