Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Concept Publishing Company

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Page 819
________________ तत्त्व : आचार: कथानुयोग] परिशिष्ट-२ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ७५६ ज्ञानदर्शन-तत्त्व-साक्षात्कार । ज्ञप्ति-सूचना । किसी कार्य के पूर्व संघ को विधिवत् सूचित करना-यदि संघ उचित समझे तो ऐसा करे। तातिस (त्रयस्त्रिश) देवता-इनका अधिपति देवेन्द्र शक्र होता है। मनुष्यों के पचास वर्ष के बराबर एक अहोरात्र होता है। ऐसे तीस अहोरात्र का एक मास, बारह मास का एक वर्ष होता है ऐसे वर्ष से हजार दिव्य वर्षों का उनका आयुष्य होता है। सुषित् देवता-तुषित् देव-भवन में बोधिसत्त्व रहते हैं। यहाँ से च्युत होकर वे संसार में उत्पन्न होते हैं और बुद्धत्व की प्राप्ति कर परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं। मनुष्यों के चार सौ वर्षों के समान इनका एक अहोरात्र होता है। तीस अहोरात्र का एक मास और बारह मास का एक वर्ष । ऐसे चार हजार दिव्य वर्षों का उनका आयुष्य होता है। थुल्लच्चय-बड़ा अपराध। दाक्षिणेय-परलोक में विश्वास करके देने योग्य दान दक्षिणा कहा जाता है। जो उस दक्षिणा को पाने योग्य हैं, वह दाक्षिणेय है। दशबल-१. उचित को उचित और अनुचित को अनुचित के तौर पर ठीक से जानना, २. भूत, वर्तमान, भविष्यत के किये हुए कर्मों के विपाक को स्थान और कारण के साथ ठीक से जानना, ३. सर्वत्र गामिनी प्रतिपदा को ठीक से जानना, ४. अनेक धातु (ब्रह्माण्ड), नाना धातु वाले लोकों को ठीक से जानना, ५. नाना विचार वाले प्राणियों को ठीक से जानना, ६. दूसरे प्राणियों की इन्द्रियों की प्रबलता और दुर्बलता को ठीक से जानना, ७. ध्यान, विमोक्ष, समाधि, समापत्ति के संक्लेश (मल), व्यवधान (निर्मला करण) और उत्थान को ठीक से जानना, ८. पूर्व-जन्मों की बातों को ठीक से जानना, ६. अलोकिक विशुद्ध, दिव्य चक्षु से प्राणियों को उत्पन्न होते, मरते, स्वर्ग लोक में जाते हुए देखना, १०. आश्रवों के क्षय से आश्रव रहित चित्त की विमुक्ति और प्रज्ञा की विमुक्ति साक्षात्कार । दशसहस्त्रब्रह्माण्ड-वे दस हजार चक्रवाल जो जातिक्षेत्र रूप बुद्ध क्षेत्र हैं। दान पारमिता-पानी के घड़े को उलट दिये जाने पर जिस प्रकार वह बिल्कुल खाली हो जाता है; उसी प्रकार धन, यश, पुत्र, पत्नी व शरीर आदि का भी कुछ चिन्तन न करते हुए आने वाले याचक को इच्छित वस्तुएँ प्रदान करना । दिव्य चक्षु-एका ग्र, शुद्ध, निर्मल, निष्पाप, क्लेश-रहित, मृदु, मनोरम और निश्चल चित्त को पाकर प्राणियों के जन्म-मृत्यु के विषय में जानने के लिए अपने चित्त को लगाना। दीर्घ माणक-दीघनिकाय कण्ठस्थ करने वाले प्राचीन आचार्य । टुक्कट का दोष- दुष्कृत का दोष । देशना-अपराध स्वीकार। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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