Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Concept Publishing Company

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Page 774
________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : ३ "आनन्द ! चक्र - रत्न पूर्व दिशा में जहाँ रुका, राजा महासुदर्शन जहाँ पड़ाव डाले था, पूर्व दिशावर्ती राज्यों के राजा उसके पास आये और कहने लगे - 'महाराज ! हम वशगत हैं । हमें आदेश दीजिए ।' ७१४ "महाराज महासुदर्शन ने उनको कहा - ' आपके राज्यों में ऐसी व्यवस्था हो कि लोग जीव-हिसा न करें, चोरी न करें, भोगासक्त हो दुराचार न करें, असत्य भाषण न करें, मदिरा आदि मादक वस्तुओं का सेवन न करें, काम-भोग उचित रूप में, सीमित रूप में सेवन करें ।' “उन राजाओं ने महाराज सुदर्शन का आदेश स्वीकार किया । आनन्द ! यों वे पूर्व दिशावर्ती राज्यों के राजा महाराज सुदर्शन के अनुयुक्तक – मांडलिक - अधीनस्थ राजा हो गये । “आनन्द ! तत्पश्चात् उस चक्र-रत्न ने पूर्वी समुद्र में डुबकी लगाई, दक्षिण दिशा में बाहर निकला, ठहरा। फिर उसने क्रमशः दक्षिण दिशावर्ती, पश्चिम दिशावर्ती तथा उत्तर दिशावर्ती समुद्रों में डुबकी लगाई। उनसे बाहर निकला। उन-उन प्रदेशों में ठहरा। राजा महासुदर्शन अपनी चातुरंगिणी सेना के साथ उसके पीछे-पीछे रहा । जिन-जिन प्रदेशों में चक्ररत्न क्रमशः रुकता, राजा महासुदर्शन वहाँ-वहाँ अपनी सेना का पड़ाव डालता । दक्षिण दिशा के पश्चिम दिशा के तथा उत्तर दिशा के राज्यों के जो राजा थे, वे क्रमश: पूर्व दिशा के राज्यों के राजाओं की ज्यों महाराज महासुदर्शन के पास आये । महासुदर्शन ने उनको भी वैसा ही कहा, जैसा पूर्व दिशा के राजाओं को कहा था। उन्होंने राजा का आदेश स्वीकार किया । उसके अनुयुक्तक - मांडलिक राजा बन गये । “आनन्द ! इस प्रकार वह चक्र - रत्न समुद्र - पर्यन्त समग्र भूमंडल का विजय कर कुशावती लौट आया | महाराज सुदर्शन के अन्तःपुर - रनवास के दरवाजे के पास जो न्याय प्रांगण था, जिस आंगन पर बैठकर राजा न्याय करता था, चक्ररत्न वहाँ आया और उस प्रांगण में उस प्रकार सुस्थिर रूप में ठहर गया, मानो कील में ठोंका गया हो। उस चक्र - रत्न के इस प्रकार वहाँ अन्तःपुर के द्वार पर अवस्थित होने से अन्त:पुर बड़ी शोभा पाने लगा । “आनन्द ! इस प्रकार राजा महासुदर्शन के चक्र - रत्न का आविर्भाव हुआ । “आनन्द ! तदनन्तर राजा महासुदर्शन के यहाँ उपोसथ हस्तिराज संज्ञक हस्ति- रत्न का उद्भव हुआ। वह सर्वथा उज्ज्वल था, चतुः संस्थान युक्त था, विशिष्ट ऋद्धिशाली था - अन्तरिक्ष में गमन करने में समर्थ था । वह भली-भाँति प्रशिक्षित किये गये उत्तम जाति के हाथी के तुल्य था । "आनन्द ! प्रशिक्षित - सुशिक्षित हाथी की सवारी बड़ी अच्छी होती है, सुखप्रद होती है । हस्ति - रत्न को देखकर राजा मन में बड़ा हर्षित हुआ । "राजा उस हाथी के परीक्षण हेतु प्रातःकाल उस पर आरूढ़ हुआ । कुछ ही देर में ही राजा को लिए कुशावती भोजन- नाश्ता कुशावती में हाथी ने समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का चक्कर लगा डाला । वह शीघ्र लौट आया। राजा ने अपना प्रातराश - प्रातः काल का हल्का किया । "आनन्द ! राजा महासुदर्शन के यहां ऐसे हस्ति रत्न का प्राकट्य हुआ । "आन्नद ! तत्पश्चात् महाराज महासुदर्शन के यहाँ बलाहक अश्वराज नामक अश्वरत्न का प्राकट्य हुआ। वह बड़ा उज्ज्वल था। उसका मस्तक काला था । बाल मूंज की Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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