Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Concept Publishing Company

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Page 798
________________ ७३८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ भव्य-देखें, भवसिद्धिक । भाव--मौलिक स्वरूप। विचार।. भावितात्मा-संयम में लीन शुद्ध आत्मा। भिक्षु प्रतिमा-साधुओं द्वारा अभिग्रह विशेष से आचरण । ये प्रतिमाएँ बारह होती हैं। पहली प्रतिमा का समय एक मास का है। दूसरी का समय दो का, तीसरी का तीन मास, चौथी का चार मास, पांचवीं का पाँच मास, छठी का छह मास, सातवीं का सात मास, आठवीं, नवीं, दसवीं का एक-एक सप्ताह, ग्यारहवीं का एक अहोरात्र और बारहवीं का समय एक रात्रि का है। पहली प्रतिमा में आहार-पानी को एक-एक दत्ति, दसरी में दो-दो दत्ति, तीसरी में तीन-तीन दत्ति, चौथी में चार-चार दत्ति, पांचवी में पांच-पांच दत्ति, छठी में छह-छह दत्ति, सातवीं में सात-सात दत्ति, आठवी, नवीं और दसवीं में चौविहार एकान्तर और पारणे में आयंबिल, ग्यारहवीं में चौविहार छतप और बारहवीं में अट्ठमतम आवश्यक है। आठवीं, नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं प्रतिमा का विस्तृत विवेचन देखें, क्रमश: प्रथम सप्त अहोरात्र प्रतिमा, एक द्वितीय सप्त अहोरात्र प्रतिमा, तृतीय सप्त अहोरात्र प्रतिमा, एक अहोरात्र प्रतिमा रात्रि प्रतिमा में। इन प्रतिमाओं के अवलम्बन में साधु अपने शरीर के ममत्व को सर्वथा छोड़ देता है और केवल आत्मिक अलख की ओर ही अग्रसर रहता है। दैन्य भाव का परिहार करते हुए देव, मनुष्य और तिर्येच सम्बन्धी उपसर्गों को समभाव से सहता है। भुवनपति-देखें, देव । भूत-वृक्ष आदि प्राणी। जीव का पर्यायवाची शब्द । मंख-चित्र-फलक हाथ में रखकर आजीविका चलाने वाले भिक्षाचर। मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान । मनःपर्यव-मनोवर्गणा के अनुसार मानसिक अवस्थाओं का ज्ञान । मन्थु-बेर आदि फल का चूर्ण । माहकल्प-काल विशेष । महाकल्प का परिमाण भगवती सूत्र में इस प्रकार है-गंगा नदी पाँच सौ योजन लम्बी, आधा योजन विस्तृत तथा गहराई में भी पांच सौ धनुष है। ऐसी सात गंगाओं की एक महागंगा, सात महागंगाओं की एक सादीन गंगा, सात सादीन गंगाओं की एक मृत्यु गंगा, सात मृत्यु गंगाओं की एक लोहित गंगा, सात लोहित गंगाओं की एक अवंती गंगा, सात अवंती गंमाओं की एक परमावंती गंगा; इस प्रकार पूर्वापर सब मिला कर एक लाख सतरह हजार छह सौ उन्चास गंगा नदियां होती हैं । इन गंगा नदियों के बालू-कण दो प्रकार के होते हैं --१. सूक्ष्म और २. बादर । सूक्ष्म का यहाँ प्रयोजन नहीं है। बादर कणों में से सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक कण निकाला जाये। इस क्रम से उपर्युक्त गंगा समुदाय जितने समय में रिक्त होता है, उस समय को मानस-सर प्रमाण कहा जाता है । इस प्रकार के तीन लाख मानस-सर प्रमाणों का एक महाकल्प होता है। चौरासी लाख महाकल्पों का एक महामानस होता है। मानस-सर के उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ तीन भेद हैं। मज्झिमनिकाय, सन्दक सुत्तन्त, २.३-६ में चौरासी हजार महाकल्प का परिमाण अन्य प्रकार से दिया गया है। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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