Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Concept Publishing Company
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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
सत्य - पृथ्वी, जल, अग्नि व वायु के प्राणी । जीव का पर्यायवाची शब्द |
सन्निवेश—उपनगर ।
७४४
सप्त सप्तमिक प्रतिमा - यह प्रतिमा उन्चास दिन तक होती है । इसमें सात-सात दिन के सप्तक होते हैं। पहले सप्तक में प्रतिदिन एक-एक दत्ति अन्न पानी एवं क्रमश: सातवें सप्तक में प्रतिदिन सात-सात दत्ति अन्न-पानी के ग्रहण के साथ कायोत्सर्ग किया जाता है ।
[ खण्ड : ३
सप्रतिकर्म - अनशन में उठना, बैठना, सोना, चलना आदि शारीरिक क्रियाओं का होना । यह क्रिया भक्त प्रत्याख्यान अनशन में होती है।
समय — काल का सूक्ष्मतम अविभाज्य अंश ।
समवसरण - - तीर्थङ्कर परिषद अथवा वह स्थान जहाँ तीर्थङ्कर का उपदेश होता है । समाचारी - साधुओं की अवश्य करणीय क्रियाएं व व्यवहार ।
समाधि दान - आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, शैक्ष, ग्लान, तपस्वी, मुनियों का आवश्यक कार्य सम्पादन कर उन्हें चैतसिक स्वास्थ्य का लाभ पहुँचाना ।
समाधि-मरण - श्रुत चारित्र-धर्म में स्थित रहते हुए निर्मोह भाव में मृत्यु |
समिति - संयम के अनुकूल प्रवृत्ति को समिति कहते हैं, वे पाँच हैं- १. ईर्ष्या, २. भाषा, ३. एषणा, ४. आदान- निक्षेप और ५. उत्सर्ग ।
१. ईर्ष्या – ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की अभिवृद्धि के निमित्त युग परिमाण भूमि को देखते हुए तथा स्वाध्याय व इन्द्रियों के विषयों का वर्जन करते हुए चलना ।
२. भाषा-भाषा - दोषों का परिहार करते हुए, पाप रहित एवं सत्य, हित, मित और असंदिग्ध बोलना ।
३. एषणा – गवेषणा, ग्रहण और ग्रास-सम्बन्धी एषणा के दोषों का वर्जन करते हुए आहार- पानी आदि औधिक उपधि और शय्या, पाट आदि औपग्रहिक उपधि का अन्वेषण |
४. आदान- निप - वस्क्षेत्र, पात्र आदि उपकरणों को सावधानी पूर्वक लेना व
रखना ।
५. उत्सर्ग — मल, मूत्र, खेल, थूक कफ आदि का विधिपूर्वक पूर्वदृष्ट एवं प्रमार्जित निर्जीव भूमि पर विसर्जन करना ।
समुज्छिन्न क्रियानिवृत्ति - शुक्ल ध्यान का चतुर्थ चरण, जिसमें समस्त क्रियाओं का निरोध
होता है । देखें, शुक्ल ध्यान ।
सम्यक्त्व — यथार्थं तत्त्व श्रद्धा ।
सम्यक्त्वी - यथार्थ तत्त्व श्रद्धा से सम्पन्न ।
सम्यक दृष्टि - पारमार्थिक पदार्थों पर यथार्थ श्रद्धा रखने वाला ।
सम्यग् दर्शन --- सम्यक्त्व — यथार्थ तत्त्व - श्रद्धा ।
सर्वतोभद्र प्रतिमा - सर्वतोभद्र प्रतिमा की दो विधियों का उल्लेख मिलता है । एक विधि के अनुसार क्रमशः दशों दिशाओं की ओर अभिमुख होकर एक-एक अहोरात्र का
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