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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन चारों ओर सो योजन पर्यन्त देखने की क्षमता लिए हुए हैं। इस जीवन में, इस जगत् में मनुष्य के लिए त्याग से बढ़कर और कुछ नहीं है । मानुष्य-मानवीय नेत्रों का दान कर आज मैंने अमानुष्य--अमानवीय-विलक्षण नेत्र प्राप्त कर लिए। इसे देखते हुए, शिवि राष्ट्रवासियो! पहले दान दो, फिर सुख भोगो। अपने सामर्थ्य के अनुकूल, अपनी शक्ति के अनुरूप दान देकर, सुख भोगकर, अनिन्दित रहकर-निन्दनीय कार्य न कर स्वर्ग को प्राप्त करो।"
बोधिसत्त्व प्रति अर्द्धमास-प्रत्येक पन्द्रहवें दिन जन-समुदाय को एकत्र करते तथा इसी रूप में धर्म का उपदेश देते रहे। लोग इससे प्रेरित होकर पुण्य कर्म करते रहे, अपना आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग प्राप्त करते रहे।
भगवान् ने इस प्रकार धर्म देशना देते हुए कहा-"भिक्षुओ ! पुरावर्ती पंडितों ने -ज्ञानी जनों ने जैसा आख्यात कथानक से प्रकट है, बाह्य-दान से परितुष्ट न हो, अपने चक्षु तक निकालकर याचकों को प्रदान कर दिये ॥"
भगवान् ने बताया-आनन्द तब सीवक वैद्य था, अनुरुद्ध शक था, जनता बुद्ध - परिषद् थी, शिविकुमार तो मैं ही था।"
१. को नीध वित्तं न ददेय्य याचितो,
अपि विसिट्ठ सुपियं पि अत्तनो। नद इङ्घ सब्बे, सिवयो समागता दिब्बानि नेत्तानि, मं अज्ज पस्सथ ॥२८।। तिरो कुड्डं तिरो सेलं, समतिग्गय्ह पब्बतं । समन्ता योजन सतं, दस्सनं अनुभोन्ति ये ॥२६॥ न चागमत्ता परमत्थि किञ्चि , मच्चानं इध जीविते। दत्वा मे मानुसं चक्खं , लदं मे चक्खु अमानुसं ॥३०॥ एतं पि दिस्वा सिवयो देथ दानानि भुज्जथ। दत्वा च भुत्वा च यथानुभावं । अनिन्दिता सग्गं उपेथ ठानं ॥३१॥
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