Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Concept Publishing Company

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Page 745
________________ तत्त्वःआचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चार पत्येक बुद्ध : जैन एवं बौद्ध-परम्परा में ६८५ कन्या ने कहा- मैं अपने पिता के वास्ते भोजन लिए आ रही थी। राजमार्ग पर एक अश्वारोही हवा की ज्यों अपना घोड़ा दौड़ाये जा रहा था। राजमार्ग तो सबके लिए है । महिलाएँ, बच्चे, बूढ़े - सभी उस पर चलते हैं। सबका यह अधिकार है । उस पर घोड़ा इतना तेज नहीं दौड़ाया जाना चाहिए। राजमार्ग पर घोड़े को यों दौड़ाये ले चलना अनुचित है, अव्यावहारिक है । वैसी स्थिति में कोई भी उसकी चपेट में आ सकता है, चोट खा सकता है, क्षत-विक्षत हो सकता है, पर, उस लापरवाह अश्वारोही में इतनी बुद्धि कहाँ ?" राजा ने फिर पूछा--"तीसरा मूर्ख तुम किसे मानती हो ?" कन्या बोली-"तीसरा मूर्ख वृद्ध चित्रकार मेरा पिता है । मैं अपने आवास-स्थान से उसके लिए ताजा भोजन तैयार कर लाती हूँ, जब उसे भोजन करने को कहती हूँ, तब वह शौचादि से निवृत्त होने चला जाता है। जब निवृत्त होकर लौटता है, भोजन तब तक ठण्डा हो जाता है । मेरा पिता इतना तक नहीं समझता कि भोजन लाने के समय तक उसे शौच आदि नित्य-कृत्यों से निवृत्त हो जाना चाहिए ताकि वह गर्म-गर्म भोजन कर सके। वृद्धावस्था में ताजे, स्फूर्तिप्रद भोजन का आनन्द लेना चाहिए। वह यह जानता ही नहीं। अतः वह मूर्ख नहीं तो क्या है ?" राजा बोला-"भद्रे ! चौथा मूर्ख तुम किसे कहती हो?" कन्या कहने लगी-'बुरा मत मानना, राजन् ! चौथे मूर्ख तुम हो।" कन्या के नेत्रों में शरारत थी, व्यंग्य था। राजा ने पूछा--"बतलाओ, मैंने क्या मूर्खता की ?" कन्या ने कहा-"तुम यहाँ आये। भित्ति-प्रदेश पर मयूर- पिच्छ की आकृति देखी। उसे लेने को झपटे । इतना तक नहीं समझ सके क भित्ति पर मयूर-पिच्छ कैसे हो सकता है ? वहाँ मोर कैसे बैठ सकता है ? किस प्रकार पंख गिरा सकता है। ऐसा विचारशून्य उत्तावलापन, आकुलता क्या मूर्खता नहीं है ?" राजा चित्रकार की कन्या के वाक्-चातुर्य और बुद्धि-कौशल पर विस्मित हो उठा। राजा ने मन-ही-मन सोचा-कन्या असाधारण रूपवती तो है ही, अद्भुत बुद्धिमती भी है। राजा ने एक बार उस पर सोत्सुक दृष्टि डाली तथा मन्द मुस्कान के साथ वह वहाँ से चला गया। कनकमंजरी के साथ विवाह राजा चित्रकार की कन्या के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ। उसने उसे अपनी जीवन-संगिनी बनाने का निश्चय किया। उसने चित्रकार को बुलाया और अपनी भावना उसके समक्ष प्रकट की। चित्रकार ने सकुचाते हुए, किन्तु, भीतर ही भीतर अत्यन्त प्रसन्नता का अनभव करते हए राजा का प्रस्ताव स्वीकार किया। दोनों का बडे आनन्दोल्लास के साथ विवाह हो गया। पर्वतवासिनी सुन्दरी ने, जो विद्याधर-कन्या थी, अपने प्रियतम राजा सिंहरथ को इतना कहकर उत्सुकतापूर्ण नेत्रों से उसकी ओर निहारा। राजा आगे सुनने को उत्कण्ठित था, बोला-“प्रिये ! बतलाओ, फिर क्या हुआ?" विद्याधर-कन्या बोली-“महाराज ! कनकमंजरी राजा की अत्यन्त प्रिय रानी हो Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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