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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-विजय-विजया : पिप्पलीकुमार-भद्रा का० ६७३
प्रव्रज्या
पिप्पलीकुमार स्नानादि से निवृत्त होकर आया, सुन्दर पलंग पर बैठा । उसके लिए चक्रवती जैसा भोजन सजा था । उसने भद्रा के साथ भोजन किया। फिर दोनों एकान्त में
दोनों ने अपना मनःसंकल्प परस्पर प्रकट किया। दोनों ने एक-दूसरे पर गहि-जीवन में टिके रहने के लिए बहुत जोर डाला, किन्तु, दोनों ही उच्च संस्कारी एवं दृढ़ संकल्पी थे। अपने निश्चय पर अडिग रहे। दोनों ने यही निर्णय किया कि जब हम दोनों का मन इतना विरक्त है, तो उत्तम यही होगा, हम दोनों ही प्रव्रजित हो जाएं।
सोचने लगे, इतनी विपुल सम्पत्ति का क्या किया जाए? यदि किसी को देंगे तो न जाने उसका वह कैसा उपयोग करेगा । संभव है, वह उसका पाप-कृत्यों में व्यय करे , इसलिए यही समुचित होगा, हम इसे ज्यों-का-त्यों छोड़ दें, इसे चाहे जो ले, चाहे जैसा हो। हमारा उससे कोई सम्बन्ध न रहे।
ऐसा निश्चित कर उन्होंने मिट्टी के भिक्षा-पात्र मंगवाये। दोनों ने एक-दूसरे के केश काटे । अपना संकल्प दुहराया-संसार में जो अर्हत् हैं, उन्हें उद्दिष्ट कर अनुसृत कर हम यह प्रव्रज्या स्वीकार करते हैं। उन्होंने झोली में पात्र डाले। उसे कन्धे से लटकाया। महल के नीचे उतरे। धन-दौलत, माल-असबाब जो जहाँ था, उसे वहीं छोड़ अपनी मंजिल की ओर चल पड़े। घर के कर्मचारियों, दास-दासियों आदि में से किसी को इसकी भनक तक न पड़ी।
चलते-चलते माणवक पिप्पलीकुमार ने भद्रा से कहा-"हम दोनों को साथ चलते देखकर लोग सोचें, अपना चित्त दूषित करें—ये प्रव्रजित होकर भी साथ चलते हैं, पृथक नहीं हो सकते । लोग पाप से अपना मन विकृत कर नरकगामी हो सकते हैं; इसलिए उत्तम यही है, हम अब अलग-अलग रास्तों से चलें । एक रास्ता तुम लो, एक मैं लूं।"
भद्रा ने कहा-'आर्य ! आपका कथन सर्वथा समुचित है। प्रबजित पुरुषों के लिए स्त्री का साथ रहना बाधा-जनक है। हमारा साथ चलते रहना दोषपूर्ण प्रतीत होगा; अत: हम अलग-अलग हो जाएं।" यह कहकर भद्रा ने पिप्पलीकुमार की तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दन किया, हाथों से अंजलि बांधे कहा-'लाखों कल्पों से चला आता साथ हम आज सर्वथा छोड़ देंगे। पुरुष दक्षिण जातीय हैं; अतः आप दक्षिण का-दाहिनी ओर का रास्ता लें। स्त्रियाँ वाम जातीय हैं; अत: मैं बाईं ओर का रास्ता लेती हूँ।" यों कह कर, नमन कर भद्रा ने बायां रास्ता लिया। माणवक पिप्पली दायें रास्ते से चल पड़ा।
तथागत को गरिमा
तब सम्यक् संबुद्ध तथागत वेणुवन महाविहार के अन्तर्गत गन्ध कुटी में अवस्थित थे। उन्हें ध्यान में दृष्टिगोचर हुआ-पिप्पली माणवक और भद्रा का पिलायनी अपार सम्पत्ति का परित्याग कर प्रव्रज्या-पथ पर समारूढ़ हैं। मुझे स्वयं उनकी अगवानी करनी चाहिए। भगवान् ने स्वयं अपने पात्र-चीवर उठाये । वहाँ विद्यमान अस्सी महास्थविरों में से किसी के भी समक्ष कुछ चर्चा नहीं की। वे गन्ध कुटी से निकले । तीन गव्यूति -कोश सामने आये, राजगृह एवं नालन्दा के मध्य बहुपत्रक नामक वटवृक्ष के नीचे आसन लगाकर स्थित हुए। पिप्पली माणवक महाकाश्यप ने उन्हें देखा। सोचा, ये हमारे शास्ता होंगे, इन्हीं को उद्दिष्ट
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