________________
तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-वासुदेव कृष्ण : घट जातक ५५५ सजाया गया, ध्वजाएं, पताकाएँ बाँधी गईं, मचान तथा मचानों पर और ऊँचे मचान बांधे गये । सातवां दिन आया। सारा नगर मानो कुश्ती-मण्डप की ओर उमड़ पड़ा। चाणूर और मुष्टिक कुश्ती-मण्डप में आ गये। वे कूदते हुए, गरजते हुए, जंघाओं पर ताली मारते हुए मण्डप में धूमने लगे। दशों भाइयों का कुश्ती-मंडप में आगमन
दशों भाई भी उधर चले । धोबियों के घरों को लूटकर वहाँ से सुन्दर, स्वच्छ वस्त्र लिये, उन्हें पहना । सौगन्धिकों-इत्रफरोशों की दूकानों से सुगन्धियाँ-इत्र आदि, मालियों की दूकानों से मालाएँ आदि लूटी, देह पर चन्दन आदि का लेप किया, सुगन्धियाँ लगाईं, मालाएं पहनीं । वे कूदते हुए, गरजते हुए और थापी लगाते हुए कुश्ती-मंडप में आये । उस समय चाणूर थापी लगाता हुआ मण्डप में घूम रहा था। बलदेव के हाथों चाणूर को मृत्यु
बलदेव ने मन-ही-मन संकल्प किया कि मैं चाणूर को हाथ से नहीं छुऊंगा। हाथ से छुए बिना ही उसे पछाडूंगा । उसे मारूंगा। हस्तिशाला से वह हाथी बाँधने का एक रस्सा ले आया। वह उछला, कूदा, गरजा और उसने रस्सा फेंक कर चाणूर को पेट पर से बाँध लिया। फिर रस्से के दोनों सिने वो एक विया, बट लिया, चाणूर को उठाया, सिर पर घुमाया, जमीन पर रगड़ा और उसके पश्चात् उसे अखाड़े से बाहर फेंक दिया। मुष्टिक का वध
राजा ने जब देखा कि चाणूर मारा गया तो उसने मुष्टिक को आज्ञा दी कि बलदेव को पछाड़ो। मुष्टिक उठा कूदा, गरजा, थापी लगाई। वलदेव ने उसे फौरन पटक कर, जमीन पर रगड़ कर, उसकी हड्डियाँ चूर-चूर कर दी। वह मौत के भय के मारे कहता गया कि मैं मल्ल नहीं हूँ। बलदेव ने यह उत्तर देते हुए कि मैं नहीं जानता, तुम मल्ल हो या नहीं, उसको हाथ से पकड़ा, भूमि पर पछाड़ा, उठाया और अखाड़े से बाहर फेंक दिया। मुष्टिक जब मर रहा था। उसने संकल्प किया कि यक्ष होकर तुमसे बदला लूंगा, तुम्हें खाऊंगा। वह कालभत्ति नामक अटवी में यक्ष के रूप में उत्पन्न हुआ। वासुदेव द्वारा कंस-उपकंस का वध
राजा कस खुद उठा और बोला- "इन दुर्जन दास-पुत्रों को पकड़ लो। वासुदेव ने उस समय अपना चक्र घुमाया तथा उन पर छोड़ा, जिससे कंस और उपकंस-दोनों भाइयों के मस्तक कट कर गिर गये । उपस्थित लोग बहुत-भयाक्रान्त हो गये। उनके पैरों में पड़े और कहने लगे- "हमारी रक्षा कीजिए।" विजय-यात्रा
इस प्रकार दोनों मामों को मारकर उन्होंने असितञ्जन नगर के राज्य पर कब्जा कर लिया। अपने माता-पिता को वहाँ ले आये। फिर दशों भाइयों ने ऐसा निश्चित किया किया कि हम समस्त जम्बू-द्वीप का राज्य अधिकृत करेंगे। ऐसा विचार कर वे विजय-यात्रा पर निकल पड़े। वे विजय करते-करते अयोध्या नगर में पहुँचे, जहाँ राजा कालसेन का राज्य था। उन्होंने नगर को घेर लिया, सघन वन को नष्ट कर दिया, नगर का प्राचीर-परकोटा
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org