Book Title: Agam Yugka Jaindarshan Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: Prakrit Bharti Academy View full book textPage 9
________________ लेखक को ओर से: जैनदर्शन के विषय में स्वतन्त्र पुस्तकों का प्रकाशन नहीं के बराबर ही है । बैनदर्शन की मौलिक संस्कृत एवं प्राकृत पुस्तकों की प्रस्तावनाओं के रूप में पण्डित श्री सुखलालजी, पंडित श्री बेचरदासजी, पण्डित श्री कैलाशचन्द्रजी, पं० श्री महेन्द्रकुमारजी, श्री जुगमन्दरलालजी जैनी तथा प्रोफेसर चक्रवर्ती, प्रोफेसर घोषाल और प्रोफेसर डा० उपाध्ये आदि ने लिखा है। पं. महेन्द्रकुमारजी तथा डा० मोहन लाल मेहता के हिन्दी में, 'जैनदर्शन' अपने आप में विशिष्ट कृतियाँ हैं । अंग्रेजी में डा० नयमलजी टाटिया की 'Studies in Jain Philosophy' पुस्तक, डा० पद्मराजैया की 'Comparative study of the Jain theory of reality and knowledge' पुस्तक और श्री वीरचन्द गांधी को 'Jain Philosophy' पुस्तक जैनदर्शन के सम्बन्ध में रचनाएँ हैं। परन्तु इन सभी में जैनदर्शन के मध्यकालीन विकसित रूप का ही, विवेचन या सार-संग्रह है। किसी ने जैन मूल आगम में, जैनदर्शन का कैसा रूप है, इसका विवरण नहीं दिया है। इस अभाव की पूर्ति के लिए मैंने जो प्रयत्न किया था, वह यहाँ स्वतन्त्र पुस्तक के रूप में उपस्थित है । मैंने १६४६ में 'न्यायावतारवातिकवृत्ति' की प्रस्तावना के एक अंश के रूप में जैन आगमों का अध्ययन करके उनमें जो जैनदर्शन का रूप है, वह उपस्थित किया था। उक्त प्रस्तावना के अंश को अन्य सामग्री के साथ जोड़ कर आगम-युग का जनदर्शन प्रकाशित किया जा रहा है। अध्येताओं को जनदर्शन के क्रमिक विकास को समझने में यह पुस्तक भूमिका का काम देगी। जैनदर्शन के बृहद् इतिहास को मन में रख कर ही प्रस्तुत प्रयत्न किया गया है । यह प्रयत्न उस बृहद् इतिहास का प्रथम भाग ही है। जैनदर्शन के मौलिक सिद्धान्तों का परिचय देने में अभी तो एकमात्र यही साधन है, यह कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं है। मैं अपने अन्य कार्य में अत्यधिक व्यस्त था, अतः प्रस्तुत पुस्तक को तैयार करने का अवकाश मेरे पास नहीं था, फिर भी सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा के प्रबन्धकों के आग्रह के कारण मुझे यह कार्य अपने हाथ में लेना पड़ा। सन्मति ज्ञान पीठ के मन्त्री के प्रयत्न के कारण ही, मैं इस कार्य को शीघ्र कर पाया, अन्यथा मेरी धर्मपत्नी के स्वर्गवास से जो परिस्थिति आ पड़ी थी, उससे बाहर निकलना मेरे लिए सम्भव नहीं था। मेरे पुत्र चिरंजीव रमेशचन्द्र मालवणिया ने इसकी शब्दसूची बनाकर मेरा भार हल्का न किया होता, तो पूरी पुस्तक छप जाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 384