Book Title: Agam Sudha Sindhu Part 04
Author(s): Jinendravijay Gani
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 438
________________ श्रीमत्प्रश्नव्याकरणदशाङ्ग-सूत्रम् : अध्ययनं 10 j [ 425 श्रावजियव्वं, न लुभियव्वं, न अज्झोववजियव्वं, न तूसियव्वं, न हसियव्वं, न सतिं च मतिं च तत्थ कुजा, पुणरवि फासिदिएण फासिय फासाति श्रमणुनपावकाई, किं ते ?, अणेगवध-बंध-तालणंकण-अतिभारारोवणए अंगभंजण-सूतीनखप्पवेस-गायपच्छण-लक्खारस-खार-तेल्ल कलकलंत-तउग्रसीसक-काललोह--सिंचण-हडिबंधण रज्जुनिगल--संकलहत्थंडय-- कुभिपाकदहण-सीहपुच्छण-उब्बंधण-सूलभेय--गय-चलणमलण-करचरण-कन्न-नासोट्ट-सीसछेयण-जिभछेयण-वसण-नयण-हियय-दंतभंजण-जोत्तलय-कसप्पहार-पादपरिह-जाणुपत्थर--निवाय-पीलणकविकच्छुअगाणि विच्छुय-डक्क-वायातव-दंस-मसकनिवाते दुट्टणिसजदुनिहिया-दुन्भिकक्खड-गुरुसीयउसिणलुक्खेसु बहुविहेसु अन्नेसु य एवमाइएसु फासेसु श्रमणुनपावकेसु न तेसु समणेण रूसियव्वं, न हीलिंयव्वं, न निंदियन्वं, न गरहियव्वं, न खिसियव्वं, न छिदियध्वं, न भिदियव्यं, न वहेयव्वं, न दुगुछावत्तियव्वं च लभा उप्पाएउं, एवं फासिदिय-भावणाभावितो भवति अंतरप्पा / मणुन्नामणुन-सुभिदुभि. रागदोस-पणिहियप्पा साहू मण-बयण-कायगुत्ते संवुडेगां पणिहितिदिए चरेज धम्म 5, 17 / एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिंवि कारणेहिं, मणवयकाय-परिरक्खिएहिं निच्चं श्रामरणंतं च एस जोगो नेयव्यो धितिमया मतिमया / अणासवो, अकलुसो, अच्छिद्दो, अपरिस्सावी, असंकटोलि, सुद्धो, सव्वजिणमणुनातो, एवं पंचमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं अणुपालियं श्राणाए धाराहियं भवति 18 / एवं नायमुणिणा भगवया महावीरेण पन्नवियं, परूवियं, पसिद्धं, सिद्ध, सिद्धवर-सासणमियां श्राघवियं, सुदेसियं, पसत्थं, पंचमं संवरदारं सम्मत्तं ति बेमि // एयातिं वयाई पंचवि सुव्वय ! महब्बयाई हेउसय-विचित्तपुक्खलाई कहियाई अरिहंतसासणे पंच समासेण

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