Book Title: Agam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Author(s): Sanghdas Gani, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 737
________________ १४२] परिशिष्ट-८ बात करने लगे। रत्नाधिक मुनि बोले-अरे ! तुमने मुझ पर झूठा आरोप क्यों लगाया ? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था ? वह छोटा मुनि बोला- आप प्रतिदिन मुझे डांटते रहते थे। मैं सम्यक् क्रिया करता, फिर भी आप कहते-हे दुष्ट शिष्य ! यह क्या करते हो ? मैंने भी फिर क्षुब्ध होकर आप पर झूठा आरोप लगाया। कपट वेश में आए हुए आचार्य ने यह जान लिया कि आरोप झूठा है या सच। (गा. १२३६-१२४७ टी. प. ५६ से ११) ६७. परस्परता का लाभ दो ग्वाले सगे भाई थे। दोनों गाएं चराते थे। कालांतर में दोनों में कलह हो गया और वे दोनों अलग-अलग अपने-अपने वेतन पर गाएं चराने लगे। एक बार उनमें से एक भाई व्याधिग्रस्त हो गया। उसने गायों का संरक्षण नहीं किया। वे गायें इधर-उधर भाग गईं। एक बार दूसरा भाई भी बीमार पड़ा और गायों का संरक्षण नहीं हो सका। उसकी गाएं भी तितर-बितर हो गईं। दोनों को बड़ी हानि हुई। दोनों ने सोचा कि एकाकी रहना उचित नहीं है। यह सोचकर दोनों ने परस्पर प्रीति उत्पन्न की और साथ रहने लगे। जब एक भाई किसी प्रयोजन वश गायों को नहीं संभाल पाता तो दूसरा भाई उसकी गायों का संरक्षण करता। इस प्रकार उन्हें लाभ होता गया। (गा. १३३१, १३३२, टी.प.७८, ७६) ६८. शक्तिहीन राजकुमार एक राजकुमार था। न उसमें बुद्धि-बल था और न सैन्यबल । वह प्रत्यन्त देश में रहकर देश-विप्लव करता था। तब दायाद (पैतृक सम्पत्ति में भागीदार) राजा ने उसे बुद्धि और सैन्यबल से रहित समझकर उसका निग्रह करने के लिए अल्पसंख्यक सैनिकों को भेजा और उसे पकड़कर मौत के घाट उतार दिया। (गा. १३७८ टी. प.६) ६६. देखादेखी की हानि एक बार अटवी में दावानल सुलगा। वह चारों ओर से सब कुछ भस्मसात् करता हुआ आगे बढ़ रहा था। तब मृग आदि वन्य-पशु ने दावानल से भयाक्रान्त होकर, पलायन कर, लघु जलाशय से परिवेष्टित सूखे स्थान (वेंट) में प्रविष्ट हो गए। दावानल दहन करता हुआ वहां आ पहुंचा। वहां एक सिंह भी आया हुआ था। भयभीत मृगों ने सोचा कि दावानल वेंट में भी प्रवेश कर जाएगा। तब वे सिंह के पैरों में गिरकर प्रार्थना करने लगे-आप हमारे राजा हैं, मृगराज हैं। आप हमें यहां से उबारें। सिंह बोला--तुम सब मेरी पूंछ को दृढ़ता से पकड़ लो। सभी ने सिंह की पूंछ पकड़ ली। सिंह ने छलांग भरी और सोलह हाथ विस्तीर्ण उस गढ़े के बाहर आ गया। सभी सुरक्षित हो गए। _ कुछ समय पश्चात् उसी वन में पुनः दावानल सुलगा। मृग आदि उसी प्रकार वेंट में प्रविष्ट हुए। वहां एक सियार भी आया जो पूर्व दावानल में सिंह के द्वारा बचाया गया था। उसे सिंह की युक्ति याद आई। उसने सोचा, मैं भी तो सिंह ही हूं। मैं मृग आदि सभी पशुओं को इस दावानल से बचा लूं। उसने मृग आदि पशुओं से कहा—तुम सब मेरी पूंछ को मजबूती से पकड़ लो। सबने सियार की पूंछ पकड़ ली। सियार कूदा। वह उन सभी पशुओं के साथ उस गढ़े में गिरा। सभी मर गये। (गा. १३८० टी. प.६) ७०. चन्द्रमा का उद्धार जेठ का महीना। भयंकर गर्मी। प्यास से व्याकुल कुछ सियार आधी रात के समय एक कुएं पर आए। कुएं की मेढ पर बैठकर वे कुएं के भीतर देखने लगे। उन्होंने ज्योत्सना के प्रकाश में कुएं के पानी में चन्द्रबिम्ब को देखा। उन्होंने सोचा, बेचारा चन्द्रमा कुएं में गिर गया है। वहां एक सिंह आया। तब सियारों ने सिंह से प्रार्थना की--तुम मृगाधिपति हो और वह ग्रहाधिपति चन्द्रमा है। यह कुएं में गिर गया है। इसी के पुण्य प्रताप से हमारी रातें दिन के समान हो जाती हैं और हम सब सुखपूर्वक इधर-उधर विहरण कर सकते हैं। इसलिए तुमको चाहिए कि तुम ग्रहाधिपति को कुएं से निकालो। सिंह बोला--तुम सब पंक्तिबद्ध होकर एक-दूसरे की पूंछ पकड़ कर मेरी पूंछ पकड़ लो और कुएं में उतरो। अंतिम सियार चन्द्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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